गरुड़ध्वज नाटक का सारांश 2022-2023
प्रसिद्ध नाटककार पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की कथावस्तु शुंग वंश के शासक सेनापति विक्रम मित्र के शासनकाल और उनके महान व्यक्तित्व पर आधारित है। गरुड़ध्वज मैं आज योग्य प्राचीन भारत के एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया गया है। इसमें धार्मिक संकीर्णता एवं स्वार्थों के कारण विघटित होने वाले देश की एकता एवं नैतिक पतन की ओर नाटककार ने ध्यान आकृष्ट किया है। यह नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति की गरिमा को बनाए रखने का संदेश देता है।
गरुड़ध्वज नाटक में इसमें आश्चर्य विक्रम मित्र कुमार विषम सील कालिदास वासंती मलावती आधे चित्रों के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता राष्ट्रप्रेम राष्ट्रीय एकता नारी स्वाभिमान जैसे गुणों को प्रस्तुत कर समाज में इनके विकास की प्रेरणा दी गई। पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक गरुड़ध्वज ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के सुंग वंश के अंतिम सेनापति विक्रम मित्र के काल से संबंधित होने के कारण ऐतिहासिक है। इसमें तत्कालीन समाज में व्याप्त पाखंड विदेशियों के अत्याचार तथा धर्म एवं अहिंसा के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों के षड्यंत्र का चित्रण किया गया है। इस नाटक में 3 अंक हैं।
गरुड़ध्वज नाटक की कथावस्तु
पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के प्रथम अंक की कहानी का प्रारंभ विदिशा में कुछ प्रहरियों के वार्तालाप से होता है। पुष्कर नामक सैनिक सेनापति विक्रम मित्र को महाराज शब्द से संबोधित करता है तब नाग से उसकी भूल की ओर संकेत करता है। वस्तुतः विक्रम मित्र स्वयं को सेनापति के रूप में ही देखते हैं और शासन का प्रबंध करते हैं। विदिशा सुंगवंशीय विक्रम मित्र की राजधानी है जिसके वह योग्य शासक हैं।
उन्होंने अपने साम्राज्य में सर्वत्र सुख शांति स्थापित की हुई है और बृहद्रथ को मार कर तथा गरुड़ध्वज की शपथ लेकर राज्य का कार्य संभाला है। काशीराज की पुत्री वासंती महाराज की पुत्री मलावती को बताती है कि उसके पिता उसे किसी वृद्ध यवन को सौंपना चाहते थे तब सेनापति विक्रम मित्र ने ही उसका उद्धार किया था। वासंती एक मोर नामक युवक से प्रेम करती थी और वह आत्महत्या करना चाहती थी लेकिन विक्रम मित्र की सतर्कता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पाती।
गरुड़ध्वज नाटक में श्रेष्ठ कवि एवं योद्धा कालिदास विक्रम मित्र को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा के कारण भीष्म पितामह कहकर संबोधन करते हैं और इस प्रसंग में एक कथा सुनाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था हो जाने के कारण विक्रममित्र मित्र वृद्ध हो गए हैं। वे वासंती और एक मोर को महल में भेज देते हैं। मलावती के कहने पर पुष्कर को इस शर्त पर क्षमादान मिल जाता है कि उसे राज्य की ओर से युद्ध लड़ना होगा।
उसी समय साकेत से एक यवन श्रेष्ठ की कन्या कौमुदी का सेनानी देवहूति द्वारा अपहरण किए जाने तथा उसे लेकर काशी चले जाने की सूचना मिलती है। सेनापति विक्रम मित्र कालिदास को काशी पर आक्रमण करने के लिए भेजते हैं और यहीं पर प्रथम अंक समाप्त हो जाता है।
गरुड़ध्वज नाटक के द्वितीय अंक की कथावस्तु
गरुड़ध्वज नाटक का द्वितीय अंक राष्ट्रहित में धर्म स्थापना के संघर्ष का इसमें विक्रम मित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय मिलता है। साथ ही उनके कौशल नीतिज्ञ एवं एक अच्छे मनुष्य होने का भी बोध होता है। इसमें मांधाता सेनापति विक्रम मित्र को अंतालिक के मंत्री हलोधर के आगमन की सूचना देता है। कुरु प्रदेश के पश्चिम में तक्षशिला राजधानी वाला यवन प्रदेश का शासक सुंग वंश से भयभीत रहता है।
उसका मंत्री हेलो धर भारतीय संस्कृति में आस्था रखता है वह राज्य की सीमा को वार्ता द्वारा सुरक्षित करना चाहता है। विक्रम मित्र देव मूर्ति को पकड़ने के लिए कालिदास को काफी भेजने के बाद बताते हैं कि कालिदास का वास्तविक नाम वीरेंद्र है जो 10 वर्ष की आयु में ही बौद्ध भिक्षु बन गया था। उन्होंने उसे विदिशा के महल में रखा और उसका नया नाम कालिदास रख दिया।
गरुड़ध्वज नाटक में काशी का घेरा डालकर कालिदास का सिराज के दरबार में बहुत आचार्यों को अपनी वैधता से प्रभावित कर लेते हैं तथा देव भूत एवं काशीराज को बंदी बनाकर विदिशा ले आते हैं। विक्रम मित्र एवं हेलो धर के बीच शांति वार्ता होती है जिसमें हेलो धर विक्रम मित्र की सारी शर्तें स्वीकार कर लेता है तथा अंतलिक द्वारा भेजी गई भेंट विक्रम मित्र को देता है।
भेंट में स्वर्ण निर्मित एवं रत्न जड़ित गरुड़ध्वज भी है। वह विदिशा में एक शांति स्तंभ का निर्माण करवाता है। इसी समय कालिदास के आगमन पर वासंती उसका स्वागत करती है तथा पीड़ा पर पड़ी पुष्पमाला कालिदास की गले में डाल देती है। इसी समय द्वितीय अंक का समापन हो जाता है।
गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथावस्तु
गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथा अवंती में घटित होती है। गर्धभिल्ल के वंशज महेंद्रादित्य के पुत्र कुमार विषम सील के नेतृत्व में अनेक वीरों ने शकों के हाथों से मालवा को मुक्त कराया। अवंती में महाकाल के मंदिर पर गरुड़ध्वज शहर आ रहा है तथा मंदिर का पुजारी वासंती एवं मलावती को बताता है कि युद्ध की सभी योजनाएं इसी मंदिर में बनी है। गरुड़ध्वज नाटक में राजमाता से विषम सील के लिए चिंतित ना होने को कहा जाता है क्योंकि सेना का संचालन स्वयं कालिदास एवं मांधाता कर रहे हैं।
काशीराज अपनी पुत्री वासंती का विवाह कालिदास से करना चाहते हैं जिसे विक्रम मित्र स्वीकार कर लेते हैं। विषम सील का राज्य अभिषेक किया जाता है और कालिदास को मंत्री पद सौंपा जाता है। राजमाता जैन आचार्यों को क्षमा दान देती हैं। और जैन आचार्य अवंति का पुनर्निर्माण करते हैं।
कालिदास की मंत्रणा से विषम सील का नाम आचार्य विक्रम मित्र के नाम से पूर्व अंश विक्रम तथा पिता महेंद्र आदित्य के बाद के अंश आदित्य को मिलाकर विक्रमादित्य रखा जाता है। गरुड़ध्वज नाटक में विक्रम मित्र काशी एवं विदिशा राज्यों का भार भी विक्रमादित्य को सौंपकर स्वयं सन्यासी बन जाते हैं। कालिदास अपने स्वामी विक्रमादित्य के नाम पर उसी दिन से विक्रम संवत का प्रवर्तन करते हैं नाटक की कथा यहीं पर समाप्त हो जाती है।
गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर कालिदास का चरित्र चित्रण।
गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में कालिदास एक प्रमुख पात्र है यह बात सर्वविदित है कि कालिदास जैसा उच्च कोटि का नाटक का कोई दूसरा नहीं है वह इस नाटक में एक पात्र के रूप में उपस्थित है किंतु एक नवीन रूप में उसकी चारित्रिक विशेषताएं इस प्रकार हैं–
- महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के महा कवि के रूप में विख्यात है। उनके कवित्व के समक्ष सभी नतमस्तक हैं। कुमार विषम सील विक्रमादित्य से कहते हैं–”इतना तो होता कि मेरे साथ रहने पर कवि राजा होते और मैं होता कवि”
- शिव के भक्त वह महान शिव भक्त हैं महाकाल के मंदिर के पुजारी के कथन से उनके शिव भक्त होने की पुष्टि की जाती है कालिदास सेव है संसार के सारे राज्य के लिए भी वह शिव की उपासना नहीं छोड़ सकते।
- कविता के प्रति गंभीर कालिदास ने अपनी कविता में उचित अनुचित का पूर्ण ध्यान रखा है उन्होंने कविता को कवि कर्म और धर्म माना। उन्होंने अपनी प्रेमिका के आग्रह पर भी कमी प्रसिद्धि के विपरीत कविता करने से मना कर दिया।
- वीर सेनापति प्रस्तुत नाटक में महाकवि कालिदास को एक नवीन रूप से प्रस्तुत किया गया है। वे केवल कोमल मन कवि ही नहीं है वरण महावीर भी है। वे जिस कुशलता से लेखनी चलाते हैं उसी कुशलता से तलवार भी चलाते हैं। सेना का संचालन करने में वे अत्यंत निपुण है।
- व्यक्ति पूजा के विरोधी व्यक्ति पूजा के विरोधी हैं। व्याधि कवि के इस कार्य से सहमत नहीं दिखते कि उन्होंने राम को देवता के रूप में प्रस्तुत किया। उन्हीं से प्रेरणा लेकर लोगों ने सामान्य जन को देवता के रूप में प्रतिष्ठित करने का घृणित कार्य आरंभ किया।
- मानवतावादी वे देवत्व में विश्वास नहीं करते वह तो सच्चे मानव में ही देवत्व के दर्शन करते हैं। वे मनुष्य को देवता से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं देवत्व का अहंकार सबके लिए शुभ भी नहीं है मैं तो अब देवता को मनुष्य बना रहा हूं मनुष्य से बढ़कर देवता होता भी नहीं।
- श्रृंगारी कवि कालिदास श्रंगारी हैं। भेजो अपनी प्रेयसी वासंती को मयूर को गोद में उठाए गले से लिफ्ट आते हुए देखते हैं तो अपनी आकांक्षा को वासंती से प्रकट करते हैं। मनुष्य क्या देवता भी कहीं हो तो इस सुख के लिए तरसने लगे जो आप इस मयूर को दे रखी हैं
- गृहस्थ जीवन के प्रति शंकालु कालिदास गृहस्थ जीवन के सफल होने के प्रति सशंकित हैं। यही आशंका व शमशेर पर प्रकट करते हैं कुमारी कल्पना और कुमारी वासंती इन प्रेमिकाओं के साथ निभ सकेगी कभी एक मान करेगी और कभी दूसरी।
इस प्रकार कहां जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में कालिदास विलक्षण पुरुष है। वीर वीर सच्चे मित्र सच्चे प्रेमी और महाकवि हैं। वे शासक भी हैं और शासित भी हैं। वीर वीर न्याय प्रिय तो कठोर और कोमल भी है।
गरुड़ध्वज नाटक के नायक विक्रम मित्र का चरित्र चित्रण
ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक के नायक तेजस्वी व्यक्तित्व वाले आचार्य विक्रम मित्र हैं। नाटक में उनकी आयु 87 वर्ष दर्शाई गई है उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–
- तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व आचार्य विक्रम मित्र के तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के कारण ही मंत्री हेलो धर विक्रम मित्र से आतंकित दिखाई देता है।
- अनुशासन प्रियता स्वयं अनुशासित जीवन जीने वाले विक्रम मित्र अन्य लोगों को भी अनुशासित रहने के पक्ष में हैं। इसी अनुशासन का डर पुष्कर में उनके द्वारा महाराज शब्द का प्रयोग करने के समय दिखाई देता है।
- देश भक्ति महान देशभक्त विक्रम मित्र का संपूर्ण जीवन राष्ट्रीय गौरव को बनाए रखने के लिए समर्पित था। वे राष्ट्र हित के लिए शास्त्र एवं शस्त्र दोनों का प्रयोग करते हैं। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होंने अनेक राज्यों को संगठित किया।
- भागवत धर्म के उन्नायक विक्रम मित्र भागवत धर्म के अनुयाई थे तथा जीवन भर उसके प्रति समर्पित रहे। इसी कारण उन्हें पूजा पाठ एवं यज्ञ अनुष्ठान विशेष रूप से प्रिय थे।
- दृढ़ प्रतिज्ञा विक्रम मित्र एक गणपति के शासक थे। भीष्म पितामह के समान आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अपनी प्रतिज्ञा को उन्होंने दृढ़ता के साथ पूरा किया।
- न्याय प्रिय विक्रम मित्र एक न्याय प्रिय शासक हैं जो न्याय के सामने सभी को समान समझते हैं चाहे वह शुंग वंश से जुड़ा हुआ देवहूति ही क्यों ना हो वह न्याय के संबंध में किसी भी तरह का पक्षपात नहीं देते।
- विनम्रता एवं उदारता विक्रम मित्र एक अनुशासन प्रिय एवं दृढ़ प्रकृति के शासक होने के साथ-साथ एक विनम्र एवं उदार व्यक्ति भी हैं। वे अपनी विनम्रता एवं उदारता का कई जगह प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
- जनसेवक विक्रम मित्र स्वयं को सत्ता का अधिकारी या सत्ता संपन्न शासक न मानकर जनसेवा की समझते हैं यही कारण है कि वहां महाराज कहलाना पसंद नहीं करते तथा स्वयं को सेनापति के संबोधन में ज्यादा संतुष्टि पाते हैं।
गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर वासंती का चरित्र चित्रण
ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की प्रमुख नारी पात्र वासंती है। अतः इसे ही नाटक की नायिका माना जा सकता है वासंती के पिता द्वारा वृद्धि एवं से उसका विवाह कराए जाने के विरोध में विक्रम मित्र वासंती को विदिशा के महल ले आते हैं तथा उसे सम्मान के साथ सुरक्षा प्रदान करते हैं। बाद में वासंती कालिदास की प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत होती है जिस के चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएं निम्न प्रकार से–
- धार्मिक संकीर्णता की शिकार नाटक के कथानक के काल में भारत में एक विशेष प्रकार की धार्मिक संकीर्णता मौजूद थी जिसकी शिकार वासंती भी होती है। उसके व्यक्तित्व में एक अवसाद के साथ-साथ ओज का गुण भी मौजूद रहता है।
- विशाल एवं उधार हृदई वासंती का हृदय अत्यंत विशाल एवं उधार है जिसके कारण वह मानव मात्र के प्रति ही नहीं बल्कि जीव मात्र के प्रति भी अत्यंत स्नेह एवं सहानुभूति रखती है। उसमें बड़े छोटे अपने पराए सभी के लिए समान रूप से प्रेम भाव भरा हुआ है।
- आत्मग्लानि वह आत्मग्लानि से विक्षुब्ध होकर अपने जीवन से छुटकारा पाना चाहती है। इसी क्रम में वह आत्महत्या का प्रयास भी करती है परंतु विक्रम मित्र के कारण उसका यह प्रयास असफल हो जाता है।
- स्वाभिमानी बसंती अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद अपना स्वाभिमान नहीं खोती। वह किसी भी ऐसे राजकुमार के साथ विवाह करने को राजी नहीं है जो विक्रम मित्र के दबाव के कारण ऐसा करने के लिए विवश हो।
- विनोद प्रिय वासंती निराश एवं विक्षिप्त होने के बावजूद विनय प्रिय नजर आती हैं वह कालिदास के काव्य रस का पूरा आनंद उठाती है।
- आदर्श प्रेमीका वासंती एक सुंदर एवं आदर्श प्रेमिका सिद्ध होती है वह निष्कलंक एवं पवित्र है वह अपने उज्ज्वल चरित्र एवं शुद्ध विशाल हृदय के साथ कालिदास को प्रेम करती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में वासंती एक आदर्श नारी पात्र एवं नाटक की नायिका है जिसका चरित्र अनेक आधुनिक स्त्रियों के लिए भी अनुकरणीय है।
गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर नायक का मलयवती का चरित्र चित्रण।
पंडित लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के नारी पात्रों में मलयवती एक प्रमुख महिला पात्र है। इसका चरित्र अत्यधिक आकर्षक सरल एवं विनोद प्रिय है मायावती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
- रूपवती वह मलय देश की राजकुमारी है। वह अत्यधिक रूपवती है एवं उसका व्यक्तित्व सरल सहज एवं आकर्षक है। उसके रूप सौंदर्य को देखकर ही कुमार विषम सील विदिशा के राज प्रसाद के उपवन में उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गए थे।
- आदर्श प्रेमीका वह एक आदर्श प्रेमिका है। कुमार विषम सील के प्रति उसके हृदय में अत्यधिक प्रेम है। वह उसका मन से वरण करने के उपरांत एक निष्ठा भाव से उसके प्रति आसक्त है। उसके प्रति उसका प्रेम सच्चा है उसे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है कि वह उसे प्राप्त कर लेगी। विषम शील को प्राप्त करने की अपनी दृढ़ इच्छा प्रकट करते हुए वह कहती है कि तब मुझे अपने आप में पूर्ण विश्वास है मैं उन्हें अपनी तपस्या को खो दूंगी निर्विकार शंकर प्राप्त हो गए और वे प्राप्त न होंगे।
- विनोद प्रिय स्वभाव राजकुमारी प्रसन्न चित्त एवं विनोदी स्वभाव की है वह अपनी प्रिय सखी वासंती से अनेक अवसरों पर खास प्रयास करती हैं। रात भर के द्वारा उसे महाकवि के द्वारा कही गई बातों के बारे में बताने पर वहां महाकवि पर व्यंग करते हुए कहती हैं कि क्यों महाकवि को यह सूजी है इस पृथ्वी की सभी राजकुमारियां कुमार हो जाए तब तो अच्छी रही। कह देना महाकवि से इस तरह की उलटफेर में कुमारों को खुमारियां होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में रह जाए।
- ललित कलाओं में रुचि उनका संगीत चित्रकला इत्यादि ललित कला में रुचि थी वह ललित कलाओं को सीखने व उन में निपुण होने के लिए विदिशा जाती हैं। जहां वह मलय देश के चित्र कला व संगीत कला को भी सीखते हैं।
अतः गरुड़ध्वज नाटक में मलायवती के चरित्र एवं व्यक्तित्व में सद्गुणों का समावेश है। अपने इन्हीं गुणों एवं स्वभाव के कारण वह एक आदर्श राजकुमारी के रूप में नाटक में प्रस्तुत हुई है। उनका सरल सहज और आकर्षक व्यक्तित्व उन्हें और अधिक आकर्षक बनाता है।
गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर काशीराज का चरित्र चित्रण।
गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में काशी राज काशी प्रदेश का राजा है जो स्वार्थी अवसर दाई है काशीराज की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं।
- कायर गरुड़ध्वज नाटक में काशीराज भवनों के साथ युद्ध न करके संधि प्रस्ताव में अपनी पुत्री को मेन इंद्र के पुत्र को दान में दे देता है जिसकी आयु 50 वर्ष की थी इससे स्पष्ट होता है कि काशीराज एक कायर प्रवृत्ति का व्यक्ति है।
- स्वार्थी अवसरवादी काशीराज कालिदास द्वारा बंदी बनाकर विक्रम मित्र के पास विदिशा लाया गया। जहां उसने अपनी पुत्री के साथ साथ कालिदास को भी मांग लिया। वह जानता था कि विक्रम मित्र कालिदास के पुत्र वात्सल्य रखते हैं। फिर भी उसने अवसर का लाभ उठाया।
- आत्मग्लानि गरुड़ध्वज नाटक में वह वासंती के समक्ष पश्चाताप करता है और कहता है युद्ध क्या कर सकूंगा अब जब आशिकी अवस्था थी तब तो मैं बिच्छू मंडली में धर्मा लाभ करता रहा। इस देश के सभी मांडलिक और गुण मुख्य आज युद्ध में है मैं ही तो ऐसा हूं जो इस कर्तव्य से वंचित हूं मैं बड़ा अभागा हूं किंतु तुम्हारे आंसू इस ह्रदय को छेद देंगे हाय।
- विलापी तथा देश प्रेमी काशीराज अपने देश में मातृप्रेम के लिए अत्यंत चिंतित है जिस पर किसी समय बहुत 2 का आधिपत्य था आज उस भूमि पर भवनों का अधिकार है जिसके लिए वह विलाप करता हुआ कहता है कि मातृभूमि और जातीय गौरव के प्रति निष्ठा बौद्ध में नहीं होती वत्स। किसी भी संकीर्ण घेरे में रहना नहीं चाहते।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में काशीराज स्वार्थी कायर राजा होने के साथ-साथ उसने अपने देश के प्रति प्रेम व देशभक्ति जैसे गुण भी निहित है।
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