Vasudev Sharan Agrawal | वासुदेवशरण अग्रवाल | Best pdf for 2025 Exam
वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) का जन्म 7 अगस्त 1904 ई. में मेरठ जनपद के खेड़ा ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता लखनऊ में रहते थे, अतः इनका बाल्यकाल लखनऊ में व्यतीत हुआ। सन् 1929 ई. में इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय में अध्यक्ष पद पर कार्य किया
सन् 1941 ई. में अग्रवाल जी ( Vasudev Sharan Agrawal ) ने पी-एच.डी. तथा 1946 ई. में डी.लिट्. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। इन्होंने ‘पाणिनिकालीन भारत’ विषय पर गहन शोधकार्य किया। सन् 1946 से 1951 तक इन्होंने सेन्ट्रल एशियन एण्टिक्विटीज म्यूजियम के सुपरिन्टेन्डेण्ट तथा भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष के रूप में अत्यंत प्रतिष्ठा एवं सफलता के साथ कार्य किया।

सन् 1951 ई. में ये ( Vasudev Sharan Agrawal ) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी (भारती महाविद्यालय) में प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन् 1952 ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘राधाकुमुद मुखर्जी व्याख्यान निधि’ के अंतर्गत ‘पाणिनि’ विषय पर व्याख्यान देने हेतु विशेष व्याख्याता के रूप में आमंत्रित किए गए।
वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) भारतीय मुद्रा परिषद (नागपुर), भारतीय संग्रहालय परिषद (पटना) तथा ऑल इंडिया ओरियंटल कांग्रेस के फाइन आर्ट सेक्शन (बंबई) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के सभापति भी रहे।
वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) जी ने पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया था। सन् 1967 ई. में इस हिन्दी साहित्यकार का निधन हो गया। भारतीय संस्कृति, पुरातत्त्व और प्राचीन इतिहास के गहन ज्ञाता डॉ. अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) के मन में भारतीय संस्कृति को वैज्ञानिक और अनुसंधानपरक दृष्टिकोण से उजागर करने की तीव्र अभिलाषा थी। इसी उद्देश्य से इन्होंने उत्कृष्ट श्रेणी के अनुसंधानात्मक निबंधों की रचना की।
निबंधों के अतिरिक्त, इन्होंने संस्कृत, पालि और प्राकृत के अनेक ग्रंथों का सम्पादन भी किया। भारतीय साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्येता के रूप में इनका नाम देश के प्रमुख विद्वानों में अग्रणी स्थान रखता है।
इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं:
- कल्पवृक्ष
- पृथिवीपुत्र
- भारत की एकता
- माताभूमि
डॉ. अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) ने वैदिक साहित्य, दर्शन, पुराण और महाभारत पर भी अनेक गवेषणात्मक लेख लिखे हैं। इसके अतिरिक्त, इन्होंने जायसी कृत ‘पद्मावत’ की सजीव व्याख्या तथा बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत कर हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया है।
वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) द्वारा सम्पादित प्रमुख ग्रंथों में उरुज्योति, कला और संस्कृति, भारतसावित्री, कादम्बरी तथा पोद्दार अभिनन्दन ग्रंथ आदि उल्लेखनीय हैं।
इनकी ( Vasudev Sharan Agrawal ) भाषा विषयानुकूल, प्रौढ़ तथा परिमार्जित है। इन्होंने मुख्यतः इतिहास, पुराण, धर्म और संस्कृति से शब्दों का चयन किया है तथा शब्दों का प्रयोग उनके मूल अर्थों में ही किया है। संस्कृतनिष्ठता के कारण इनकी भाषा कहीं-कहीं दुरूह भी हो जाती है। फिर भी देशज शब्दों के प्रयोग से भाषा में सहजता बनाए रखने का प्रयास किया गया है। उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों, मुहावरों और कहावतों का प्रयोग इनकी भाषा में प्रायः नहीं मिलता।
इनकी ( Vasudev Sharan Agrawal ) मौलिक रचनाओं में संस्कृत की सामासिक शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जबकि भाष्यों में व्यास शैली प्रमुख है। इनकी शैली पर इनके गंभीर, चिंतनशील और विद्वान व्यक्तित्व की गहरी छाप विद्यमान है। वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) एक सजग शोधकर्ता, विवेकशील विचारक और सहृदय कवि थे। इसीलिए इनके निबंधों में ज्ञान का आलोक, चिंतन की गहराई और भावोद्रेक की तरलता एक साथ दृष्टिगोचर होती है।
सामान्यतः इनके निबंध विचारात्मक शैली में लिखे गए हैं। निर्णयों की पुष्टि हेतु उद्धरण प्रस्तुत करना इनकी लेखन शैली की एक विशिष्ट विशेषता रही है, जिससे इनके ( Vasudev Sharan Agrawal ) निबंध उद्धरण बहुल बन गए हैं। इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति का उदात्त स्वरूप व्यक्त होता है। इनके कथन प्रामाणिक होते हैं और शैली में गहरा आत्मविश्वास झलकता है। संक्षेप में, इनकी शैली का प्रधान स्वरूप विवेचनात्मक है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में वासुदेवशरण अग्रवाल ( Vasudev Sharan Agrawal ) अपनी मौलिकता, विचारशीलता और विद्वत्ता के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे।
प्रस्तुत निबंध ‘राष्ट्र का स्वरूप’ इनके ‘पृथिवीपुत्र’ नामक निबंध संग्रह से लिया गया है। इस निबंध में लेखक ने राष्ट्र के स्वरूप को तीन तत्त्वों — पृथिवी, जन और संस्कृति — से निर्मित बताया है। लेखक ( Vasudev Sharan Agrawal ) के अनुसार, पृथिवी को माता और स्वयं को पृथिवी का पुत्र मानना, राष्ट्रीयता की भावना के विकास के लिए अनिवार्य है। राष्ट्र के समग्र स्वरूप में भूमि और जन का दृढ़ संबंध आवश्यक है।
साथ ही, संस्कृति के विषय में भी लेखक ने अत्यंत मार्मिक विचार प्रस्तुत किए हैं। लेखक ( Vasudev Sharan Agrawal ) का मत है कि सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को सहजता से स्वीकार करता है और उससे आनंदित हो उठता है।
राष्ट्र का स्वरूप ( Vasudev Sharan Agrawal )
भूमि
भूमि, उस पर निवास करने वाला जन और जन की संस्कृति—इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।
भूमि का निर्माण देवों ने किया है, और वह अनादि काल से विद्यमान है। उसके भौतिक रूप, सौंदर्य और समृद्धि के प्रति जागरूक होना हमारा आवश्यक कर्तव्य है। हम जितना अधिक पृथिवी के पार्थिव स्वरूप के प्रति जागरित होंगे, उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता सुदृढ़ और प्रबल होती जाएगी। वास्तव में, पृथिवी ही समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है। जो राष्ट्रीयता पृथिवी से जुड़ी नहीं है, वह जड़हीन और क्षणभंगुर होती है।
राष्ट्रीय भावनाओं के विकास हेतु पृथिवी से गहरा संबंध अनिवार्य है। इसलिए, भूमि के भौतिक स्वरूप को जानना, उसकी सुंदरता, उपयोगिता और महिमा को पहचानना, प्रत्येक जागरूक नागरिक का अनिवार्य धर्म है।
इस कर्तव्य की पूर्ति अनेक प्रकार से हो सकती है। पृथिवी से संबद्ध प्रत्येक वस्तु, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, के विषय में जिज्ञासा और ज्ञान अर्जित करने के लिए हमें कटिबद्ध होना चाहिए। पृथिवी का संपूर्ण और वैज्ञानिक अध्ययन जागरूक राष्ट्र के लिए अत्यंत आनंदप्रद कर्तव्य है। इसके लिए गाँवों और नगरों में सैकड़ों अध्ययन केंद्रों की स्थापना आवश्यक है।
उदाहरण स्वरूप, पृथिवी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने वाले मेघ—जो प्रतिवर्ष समय पर आकर अपने अमृतजल से भूमि को सिंचित करते हैं—अध्ययन की परिधि में आने चाहिए। मेघजलों से पुष्ट होने वाली प्रत्येक तृणलता और वनस्पति का भी सूक्ष्म परिचय प्राप्त करना हमारा कर्तव्य है।
जब ज्ञान के सभी द्वार हमारे लिए खुलेंगे, तब सैकड़ों वर्षों से छाए अज्ञान और अंधकार के क्षेत्र में नवप्रभा का संचार होगा।
धरती माता की कोख में संचित अमूल्य निधियों से कौन अपरिचित रहना चाहेगा? अनगिनत वर्षों से विविध धातुएँ पृथिवी के गर्भ में पोषित होती रही हैं। नदियाँ, पहाड़ों को पीसकर विभिन्न प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी को सँवारती रही हैं। भावी आर्थिक समृद्धि हेतु इन सभी प्राकृतिक संपदाओं का वैज्ञानिक परीक्षण और उपयोग आवश्यक है।
पृथिवी की गोद से उत्पन्न जड़-पत्थर, जब कुशल शिल्पियों के हाथों सँवारे जाते हैं, तो सौंदर्य के अद्भुत प्रतीक बन जाते हैं। नदियों के प्रवाह में सूर्यकिरणों से दमकते अनगढ़ नग जब कुशल कारीगरों द्वारा तराशे जाते हैं, तब उनमें अद्वितीय शोभा प्रकट होती है, और वे अनमोल रत्न बन जाते हैं। हमारे देश के नर-नारी के रूप-संवर्धन में इन रत्नों का उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है, अतः उनका ज्ञान भी अत्यंत आवश्यक है।
पृथिवी और आकाश के बीच फैली सम्पदा तथा महासागरों में समाहित जलचर और बहुमूल्य रत्नों के प्रति भी राष्ट्र में जागरूकता और स्वागत का भाव उत्पन्न होना चाहिए। जब तक राष्ट्र के नवयुवकों के हृदयों में इनके प्रति जिज्ञासा और उत्साह का संचार नहीं होता, तब तक हम एक सुप्त राष्ट्र के समान हैं। ( Vasudev Sharan Agrawal )
विज्ञान और उद्योग के संयुक्त प्रयास से राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का एक नया वैभवपूर्ण रूप गढ़ना होगा। इस कार्य को प्रसन्नता, उत्साह और निरंतर परिश्रम के साथ आगे बढ़ाया जाना चाहिए। हमारा संकल्प होना चाहिए कि राष्ट्र के प्रत्येक हाथ को इस कार्य में सहभागी बनाया जाए। तभी मातृभूमि की समृद्धि और सौंदर्य का पूर्ण विकास संभव होगा।
जन
मातृभूमि पर निवास करने वाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व हैं। यदि केवल पृथिवी हो और उस पर कोई मानव न हो, तो राष्ट्र की कल्पना ही असंभव है। पृथिवी और जन—इन दोनों के सामंजस्य से ही राष्ट्र का सम्पूर्ण स्वरूप आकार लेता है। जन के कारण ही पृथिवी को मातृभूमि का पावन सम्मान प्राप्त होता है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
पृथिवी को माता और स्वयं को उसका पुत्र मानने की भावना ही राष्ट्रीयता का मूल स्रोत है। यही भाव इस श्लोक में अभिव्यक्त हुआ है—
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।”
(भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।)
मातृभूमि पर निवास करने वाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अनिवार्य तत्व हैं। यदि पृथिवी हो और उस पर कोई जन न हों, तो राष्ट्र की कल्पना ही संभव नहीं है। पृथिवी और जन—इन दोनों के संयुक्त अस्तित्व से ही राष्ट्र का स्वरूप साकार होता है। जन के कारण ही पृथिवी को मातृभूमि का गौरव प्राप्त होता है।( Vasudev Sharan Agrawal )
पृथिवी को माता और स्वयं को उसका पुत्र मानने की भावना ही राष्ट्रीयता की कुंजी है। यही भावना राष्ट्र-निर्माण के अंकुर उत्पन्न करती है। जब यह भाव सशक्त रूप में जागृत होता है, तब राष्ट्र-निर्माण के स्वर वायुमंडल में गूंजने लगते हैं। इसी भावना से मनुष्य पृथिवी के साथ अपने सच्चे संबंध को प्राप्त करता है। जहाँ यह भाव नहीं है, वहाँ जन और भूमि का संबंध निष्प्राण और जड़ बना रहता है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
जिस क्षण जन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है, उसी क्षण श्रद्धा और आनंद से भरा हुआ उसका प्रणाम भाव मातृभूमि के प्रति इस प्रकार प्रकट होता है—
“नमो मात्रे पृथिव्यै, नमो मात्रे पृथिव्यै।”
(माता पृथिवी को प्रणाम है। माता पृथिवी को प्रणाम है।)
यह प्रणाम भाव ही भूमि और जन के बीच दृढ़ बंधन है। इसी आधार पर राष्ट्र का भवन निर्मित होता है और उसी पर राष्ट्र का चिरस्थायी जीवन अवलंबित रहता है। इस मर्यादा को मानकर ही राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों का उदय होता है।
जो जन पृथिवी के साथ माता और पुत्र के संबंध को स्वीकार करता है, वही पृथिवी के वरदानों में भाग पाने का अधिकारी बनता है। माता के प्रति अनुराग और सेवा-पथ पर चलना पुत्र का स्वाभाविक धर्म है; यह निष्कारण और निस्वार्थ प्रेम है। स्वार्थवश यदि पुत्र माता के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है, तो वह उसके पतन का संकेतक बन जाता है। इसलिए मातृभूमि से संबंध जोड़ने वाले को पहले अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होना चाहिए। ( Vasudev Sharan Agrawal )
माता अपने समस्त पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथिवी पर वास करने वाले सभी जन समान हैं—उनमें ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। जो मातृभूमि के अभ्युदय से जुड़ा है, वह समान अधिकार का भागी है। पृथिवी के विस्तृत आंगन में नगर, ग्राम, जंगल, पर्वत—सभी स्थान विविध जातियों और धर्मों के जनों से भरे हुए हैं, फिर भी सब मातृभूमि के पुत्र हैं, और इस कारण उनका सौहार्द्र अखंड है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
सभ्यता और रहन-सहन में भिन्नता हो सकती है, परंतु मातृभूमि के साथ जो संबंध है, उसमें किसी प्रकार का अंतर नहीं आ सकता। पृथिवी के विशाल प्रांगण में सब जातियों को समान अधिकार और विकास का अवसर मिलना चाहिए। समन्वय और सहयोग के मार्ग से ही राष्ट्र समग्र प्रगति कर सकता है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
राष्ट्र के प्रत्येक अंग की देखभाल आवश्यक है। यदि शरीर के किसी अंग में अंधकार या निर्बलता व्याप्त हो, तो समग्र राष्ट्र भी दुर्बल रहेगा। इसलिए पूरे राष्ट्र को एक समान उदार भावना और जागरण से संचालित होना चाहिए।
जन का प्रवाह अनंत है। सहस्रों वर्षों से राष्ट्रीय जन ने भूमि के साथ तादात्म्य स्थापित किया है। जब तक सूर्य की किरणें नित्य भुवन को आलोकित करती रहेंगी, तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर रहेगा। इतिहास के उतार-चढ़ाव को पार करते हुए भी राष्ट्र के निवासी जन नवीन आशाओं और प्रयत्नों से निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जन का जीवन सतत प्रवाहमान नदी के समान है, जिसमें श्रम और साधना के द्वारा विकास के घाटों का निर्माण करना होता है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
संस्कृति
राष्ट्र का तीसरा अवयव जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों युगों में जिन आदर्शों और सभ्यताओं का निर्माण किया है, वही उनके जीवन की प्राणवायु है। बिना संस्कृति के जन मात्र कबंध (शरीर मात्र) रह जाते हैं; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क और आत्मा है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
संस्कृति के विकास और उत्कर्ष से ही राष्ट्र की वृद्धि संभव है। राष्ट्र के समग्र स्वरूप में भूमि और जन के साथ-साथ संस्कृति का विशेष स्थान है। यदि भूमि और जन को उनकी संस्कृति से विछिन्न कर दिया जाए, तो राष्ट्र के अस्तित्व का लोप निश्चित है।
जीवन रूपी वटवृक्ष का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौंदर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का यश और वैभव निहित है। ज्ञान और कर्म के पारस्परिक प्रकाश का नाम ही संस्कृति है। भूमि पर वास करने वाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो विचार किया है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, वही संस्कृति के रूप में प्रकट होता है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति का स्वरूप है। प्रत्येक जाति अपनी विशेषताओं के अनुसार इस युक्ति का निर्माण करती है और उससे प्रेरित होकर अपनी संस्कृति का विकास करती है। इस दृष्टि से, राष्ट्र में विविध संस्कृतियाँ विकसित होती हैं, परंतु उनका मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय होता है।
जैसे जंगल में विविध लताएँ, वृक्ष और वनस्पतियाँ अदम्य जीवन-शक्ति से परिपूर्ण होकर सहअस्तित्व प्राप्त करती हैं, वैसे ही राष्ट्रीय जन अपनी विविध संस्कृतियों के साथ मिलकर राष्ट्र के एकत्व को सुदृढ़ करते हैं। जैसे अनेक नदियाँ अपने विविध प्रवाहों के साथ मिलकर समुद्र में एकरूपता प्राप्त करती हैं, वैसे ही राष्ट्रीय जीवन की विविध धाराएँ भी एक विराट सांस्कृतिक समुद्र का निर्माण करती हैं।
राष्ट्रीय संस्कृति
राष्ट्रीय संस्कृति में विविधताओं का समन्वय होता है। समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखद एवं सशक्त स्वरूप है। साहित्य, कला, नृत्य, गीत और विविध मनोरंजन के माध्यम से राष्ट्रीय जन अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनंद-भाव है, वह इन्हीं विविध रूपों में साकार होता है।
यद्यपि बाह्य दृष्टि से संस्कृति के ये स्वरूप अनेक प्रकार के प्रतीत होते हैं, किंतु आंतरिक आनंद की दृष्टि से इनमें एक गहरी एकता विद्यमान है। सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनंद-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनंदित होता है। इस प्रकार की उदार भावना विविध जातियों और समुदायों से बने राष्ट्र के लिए अत्यंत स्वास्थ्यकर और आवश्यक है।
गाँवों और जंगलों में स्वच्छंद रूप से जन्मे लोकगीतों में, तारों की छाँव में विकसित लोककथाओं में संस्कृति का अपार भंडार भरा हुआ है। वहाँ से आनंद और प्रेरणा की अनंत धारा प्रवाहित होती है। राष्ट्रीय संस्कृति के परिचय और विकास के समय इन सभी लोक तत्वों का आदर और स्वागत करना आवश्यक है। ( Vasudev Sharan Agrawal )
हमारे पूर्वजों ने चरित्र, धर्मशास्त्र, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो गौरवमयी कार्य संपन्न किए हैं, हम उन्हें गर्वपूर्वक धारण करते हैं। हम चाहते हैं कि उनके द्वारा प्रदत्त तेज और प्रेरणा को अपने भावी जीवन में सजीव रूप में साकार करें।
वही राष्ट्र प्रगतिशील कहलाता है, जहाँ अतीत वर्तमान के लिए बोझ नहीं बनता, न ही भूतकाल वर्तमान को जकड़ता है। अपितु अतीत का वरदान वर्तमान को पुष्ट और प्रेरित कर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसे जीवंत और विकासशील राष्ट्र का हम अभिनंदन करते हैं।