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अध्याय – 1

अध्याय – 2

अध्याय – 3

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हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आपको आज हम उपलब्ध कराने वाले है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास बहुत ही समृद्ध शैली का है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास के बारे में बहुत सरे रोचक तथ्य अभी आपके सामने आयने वाले है।

हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास का स्वरूप एवं विकास

भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी गद्य का प्रवर्तक माना जाता है। इनसे पहले गद्य साहित्य की व्यवस्थित परंपरा नहीं मिलती है। हिंदी भाषा एवं साहित्य दोनों पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव बहुत गहरा पड़ा। इनसे पहले मुंशी सदा सुख लाल की भाषा पंडिता ओपन लिए हुई थी। जबकि लल्लू लाल व सदल मिश्र की भाषा में क्रमशः ब्रज भाषा व पूर्वी भाषा का प्रभाव था राजा से प्रसाद का उर्दू 1 शब्दों से आगे बढ़कर वाक्य विन्यास में भी समाया हुआ था गद्य का निकला हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ।

हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास

मुद्रण यंत्र के चैनल शिक्षण संस्थाओं की स्थापना धार्मिक सामाजिक एवं बौद्धिक आंदोलनों के उत्थान पत्र-पत्रिकाओं के प्रसार आदि के कारण जीवन में जैसे-जैसे यांत्रिक एवं चिंतन की प्रतिष्ठा हुई वैसे वैसे गद्य साहित्य का भी विकास होता गया। आधुनिक काल में गद्य के विकास की अधिकता को देखते हुए इसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गद्य काल की संज्ञा दी है। गंदे का संबंध व्यवहारिक जीवन से अधिक होता है व्यवहारिक जीवन का बुद्धि से और बुद्धि का विचारों से घनिष्ठ संबंध होने के कारण गद्य का संबंध व्यवहारिकता बौद्धिकता एवं वैचारिकता से अधिक जोड़ता है।

हिंदी गद्य के विकास को दो भागों में विभाजित किया गया है।

  1. आधुनिक काल से पूर्व हिंदी गद्य
  2. आधुनिक काल में हिंदी गद्य

आधुनिक काल से पूर्व हिंदी गद्य

भाषा की दृष्टि से आधुनिक काल से पूर्व के हिंदी गद्य को चार भागों में विभाजित किया गया है

  1. राजस्थानी गद्य
  2. मैथिली गद्य
  3. ब्रजभाषा गद्य
  4. खड़ी बोली के प्रारंभिक गद्य

( 1 ) राजस्थानी गद्य
हिंदी गद्य का प्राचीनतम रूप राजस्थानी गण 10 वीं सदी के आसपास का गद्य है इसकी प्राचीनतम उपलब्ध रचनाएं जैसे आराधना अति विचार बाल शिक्षा मुनि जैन विजय द्वारा संपादित प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ में संग्रहित है।

( 2 ) मैथिली गद्य
प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ वर्ण रत्नाकर जो त्रिशा द्वारा रचित विद्यापति – कीर्ति लता जो की राजा कीर्ति सिंह का बखान है। और कीर्ति पताका जो की महाराजा शिवसिंह का बखान है।

( 3 ) ब्रजभाषा गद्य
प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ गोरखनाथ कृत गोरखसार । गोस्वामी विट्ठलनाथ द्वारा रचित ग्रंथ श्रंगार रस मंडल यमुनाष्टक नवरत्न सटीक आदि है। स्वामी गोकुलनाथ द्वारा रचित चौरासी वैष्णव की वार्ता 252 वैष्णव की वार्ता आदि।

( 4 ) खड़ी बोली के प्रारंभिक गद्य।
दक्खिनी के गद्य – खड़ी बोली का विकास मुख्यतः ब्रजभाषा एवं राजस्थानी गद्य से हुआ है। कुछ लोग इसे दक्षिणी एवं अवधि गद्य का मिश्रित रूप भी मानते हैं। दक्षिणी गद्दे की पहली रचना मिराजुल आशिकी ख्वाजा बंदा नवाज गेसूदराज ने 1346 से 1423 ईस्वी में लिखी थी जो दक्षिणी हिंदी के प्रथम गद्य लेखक भी थे।

उत्तरी भारत में खड़ी बोली के गद्य प्राची प्रथम गद्य रचना चंद चंद वर्णन की महिमा 1570 इसी में कवि गंग द्वारा रचित ब्रिज मिश्रित खड़ी बोली की रचना थी गोरा बादल की कथा 1623 ईस्वी में जटमल द्वारा रचित की गई तथा भाषा योग वशिष्ठ 1741 ईस्वी में खड़ी बोली गद्य की सर्वाधिक मान्य एवं व्यवस्थित भाषा में रचित प्रथम पुस्तक थी इसके अलावा रामप्रसाद निरंजनी द्वारा रचित पदम पुराण 1761 में पंडित दौलतराम द्वारा रचित की गई।

हिन्दी गद्य की कुछ महत्वपूर्ण प्रारंभिक रचनाये।

रचनाएँ रचनाकार
वैशाख माहात्म्य बैकुण्ठमणि शुक्ल
अष्टयाम नाभादास
बनारसीदास विलास बनारसीदास
भक्तमाल प्रसंग वैष्णवदास
रानी केतकी की कहानी इंसा अल्ला खां
सुखसागर मुंशी सदासुख लाल
प्रेमसागर लल्लूलाल
माधव विलास लल्लूलाल
नासिकेतोपाख्यान सदल मिश्र
भाग्यवती श्रद्धाराम फुल्लौरी
योगवाशिष्ठ के चुने हुए श्लोक राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
उपनिषद सार राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
वामा मनोरंजन राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
आलसियों का कोड़ा राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
विद्यांकुर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
राजा भोज का सपना राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
इतिहास तिमिर नाशक राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
बेताल पचि सी सुरति मिश्र
संयोगिता स्वयंवर लाला श्री निवास दास
शिकारनामा गेसूदराज बन्दनवाज
निसहाय हिन्दू राधाकृष्ण दास
ए डिक्सनरी ऑफ़ इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी गिलक्राइस्ट
ए ग्रामर ऑफ़ द हिंदुस्तानी गिलक्राइस्ट लेंग्वेज
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

आधुनिक काल से पूर्व हिंदी गद्य

हिंदी गद्य संबंधी कुछ महत्वपूर्ण तथ्य नीचे दर्शाए गए हैं जो आपका मार्गदर्शन हिंदी गद्य के नजरिए से उचित ढंग से कर पाएंगे इन्हें आप ध्यान पूर्वक देखें।

  • अट्ठारह सौ ईसवी में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना डॉक्टर जॉन बर्थ रेट गिलक्रिस्ट ने की अध्यक्षता में हुई
  • बाइबल का हिंदी एवं उर्दू अनुवाद हेनरी मार्टिन द्वारा 18 सो 9 ईस्वी में किया गया।
  • कोलकाता स्कूल बुक सोसाइटी की स्थापना 18 सो 17 ईस्वी में हुई।
  • आगरा स्कूल बुक सोसायटी की स्थापना 1833 इस्वी में हुई।
  • संस्कृत प्रेस के संस्थापक लल्लू लाल थे
  • संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश के दफ्तरों की भाषा उर्दू की गई 18 सो 37 ईस्वी में
  • स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा हिंदी गद्य में लिखी गई रचना सत्यार्थ प्रकाश जो 18 सो 75 ईस्वी में प्रकाशित हुई।
  • वर्ष उन्नीस सौ में कचहरी ओं में नगरी लिपि की पुनः प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति पंडित मदन मोहन मालवीय थे।
  • हिंदी का पहला समाचार पत्र उदंत मार्तंड जो के 18 से 26 ईसवी में पंडित युगल किशोर के संपादन नेतृत्व में संपादित किया गया था इस साप्ताहिक पत्र को हिंदी की प्रथम पत्रिका भी माना गया है।
  • हिंदी के अतिरिक्त बांग्ला अंग्रेजी फारसी में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र बंगदूत जो 18 सो 29 ईस्वी में राजा राममोहन राय के संपादन में संपादित हुआ था। इन्होंने वेदांत सूत्र का हिंदी अनुवाद भी किया था।
  • बनारस अखबार जो सन 18 सो 44 ईस्वी में प्रकाशित हुआ वह राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की प्रेरणा से प्रकाशित हुआ था।
  • राजा शिवप्रसाद उर्दू भाषा के समर्थक थे।
  • राजा शिवप्रसाद की कृतियों में से मुख्य कृतियां हैं राजा भोज का सपना, मानव धर्मसार, भूगोल हंसता मलक, इतिहास तिमिरनाशक आदि।
  • राजा लक्ष्मण सिंह संस्कृत निष्ठ हिंदी भाषा के समर्थक थे।
  • राजा लक्ष्मण सिंह की कृतियां– शकुंतला, रघुवंश, मेघदूत।
  • राजा लक्ष्मण सिंह ने कौन सा समाचार पत्र निकाला?– प्रजा हितैषी।

काल क्रमानुशार खड़ीबोली गद्य के प्रथम चार आचार्य एवं उनकी शैली।

आचार्य भाषा शैली
मुंशी सदासुख लाल सहज एवं प्रवाहमयी भाषा
इंशा अल्ला खां अलंकृत, चुटीली एवं मुहावरेदार भाषा
लल्लूलाल जी ब्रजभाषा के साथ उर्दू का प्रयोग
सदल मिश्र पूरबीपन बहुल भाषा
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

गद्य के विकास की द्रष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन

काल का नाम काल का समय काल
पूर्व भारतेन्दु युग 13 वीं शताब्दी से 1850 ई. तक
भारतेन्दु युग 1850 से 1900 ई. तक
द्विवेदी युग 1900 से 1918 ई. तक
छायावादी युग 1918 से 1938 ई. तक
छायावादोत्तर युग 1938 ई. से अब तक
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

भारतेंदु युगीन गद्य।

भारतेंदु युगीन गद्य से हिंदी गद्य का विकास माना जाता है। इसी युग में भारतेंदु मंडल ने हिंदी गद्य की विधाओं में निबंध नाटक उपन्यास आदि की रचना की।

  • हिंदी नई चाल में ढली कथन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 18 सो 70 ईस्वी में हरिश्चंद्र मैगजीन में कहा था।
  • हिंदी भाषा की शुद्धता एवं परिष्कार के प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को माना जाता है।
  • नागरी प्रचारिणी सभा काशी की स्थापना 18 सो 93 ईस्वी में हुई।
  • नागरी प्रचारिणी सभा काशी के संस्थापक श्यामसुंदर दास राम नारायण मिश्र एवं शिव कुमार सिंह थे।
  • अंजुमन लाहौर नामक सभा की स्थापना नवीन चंद्र राय द्वारा लाहौर में की गई।
  • धर्म एवं ईश्वर संबंधी विचारों के प्रचार अर्थ तभी समाज की स्थापना भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा 1873 में की गई।
  • कवि वचन सुधा का प्रकाशन 18 सो 68 ईस्वी में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा काशी से किया गया।

हिंदी गद्य की प्रमुख विधाएं एवं उनके प्रथम रचना एवं रचनाकार।

प्रथम रचना रचना रचनाकार
हिंदी का प्रथम नाटक नहुष गोपालचंद्र गिरिधरदास
हिंदी का प्रथम उपन्यास परीक्षा गुरु लाला श्रीनिवास दास
हिंदी का प्रथम कहानी इन्दुमतीकिशोरीलाल गोश्वामी
हिंदी का प्रथम यात्रा वृतान्त सरयू पार की यात्रा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

हिंदी भाषी क्षेत्र में जन जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्थाएं उनकी स्थापना वर्ष एवं संस्थापक।

संस्थाए स्थापना वर्ष संस्थापक
ब्रह्म समाज 1829 ई.राजा राममोहन राय
रामकृष्ण मिशन 1867 ई.स्वामी विवेकानंद
प्रार्थना समाज 1867 ई.महादेव गोविन्द रानाडे
आर्य समाज 1867 ई.स्वामी दयानन्द सरस्वती
थियोसोफिकल सोसायटी 1882 ई.एनी बेसेण्ट
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

भारतेंदु मंडल के प्रसिद्ध लेखक एवं उनके नाटक।

लेखक नाटक
भारतेन्दु हरिचन्द्र वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषष्य विषमोषधम, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, सती प्रताप आदि
प्रतापनारायण मिश्र गौ संकट, कलिप्रभाव, भारत-दुर्दशा
बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन भारत सौभाग्य, प्रयाग रमागमन
प. बालकृष्ण भटट कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बाल विवाह
राधाचरण गोस्वामी अमर सिंह राठौर, बूढ़े मुँह मुहासे
राधाकृष्ण दास दुःखिनी बाला, महाराणा प्रताप
किशोरी लाल गोस्वामी प्रणयिनी परिणय, मयंक मंजरी
लाला श्रीनिवास दास रणधीर, प्रेम मोहिनी, सयोंगिता स्वयंवर
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प्रमुख पत्र एवं पत्रिकाएं

लेखक पत्र एवं पत्रिकाएं
भारतेन्दु हरिचन्द्र मैग्जीन, हरिचन्द्र चन्द्रिका, बालाबोधिनी
बालकृष्ण भटट हिन्दी-प्रदीप
प्रतापनारायण मिश्र ब्राह्मण
कार्तिक प्रसाद खत्री हिन्दी दीप्ति प्रकाश
बद्रीनारायण चौधरी आनन्द कादम्बिनी
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द्विवेदी युगीन गद्य

नीचे दिए गए तथा द्वारा आपको द्विवेदी युगीन गद्य के बारे में समझाया गया है इन तथ्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ें।

  • द्विवेदी युग का नामकरण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर किया गया है।
  • नागरी प्रचारिणी सभा की प्रेरणा से सरस्वती पत्रिका द्विवेदी युग की सर्वप्रथम पत्रिका का प्रकाशन वर्ष उन्नीस सौ से प्रारंभ हुआ इसके प्रकाशक एवं प्रथम संपादक थे चिंतामणि घोष।
  • पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी वर्ष 1903 में सरस्वती पत्रिका के संपादक बने।
  • द्विवेदी जी से पहले सरस्वती पत्रिका के संपादक डॉ श्याम सुंदर दास थे।
  • द्विवेदी युग को जागरण सुधार काल की संज्ञा डॉ नागेंद्र ने दी है।
  • बीसवीं सदी के आरंभिक चरण का विश्वकोश सरस्वती पत्रिका का माना गया है।
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचनाएं जैसे संपत्तिशास्त्र, जनकश्य दंड, रसाज्ञ रंजन, sukhvi sankirtan, कवि और कविता एवं आत्म निवेदन इत्यादि।
  • भाषा की शुद्धि तथा वर्तनी की एकरूपता के प्रबल समर्थक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को माना जाता है।
  • भारतेंदु युग तथा द्विवेदी युग को जोड़ने वाली कढ़ी के कवि बालमुकुंद गुप्त को माना जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

द्विवेदी युग के महत्वपूर्ण नाटक।

नाटककार नाटक
राधाचरण गोस्वामी श्रीदामा ( पौराणिक )
शिवनन्दन सहाय सुदामा ( पौराणिक )
ब्रजनन्दन सहाय उद्धव ( पौराणिक )
गंगा प्रसाद रामभिषेक ( पौराणिक )
गंगा प्रसाद गुप्त वीय जयमल ( ऐतिहासिक )
वृंदावनलाल वर्मा सेनापति ऊदल ( ऐतिहासिक )
भगवती प्रसाद वृद्ध विवाह ( सामयिक )
लाला सीताराम मृछीकटिकम ( अनुदित )
सदानन्द अवस्थी नागानन्द ( अनुदित )
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उल्लेखनीय उपन्यास।

उपन्यासकार उपन्यास का नाम
देवकीनन्दन खत्री चन्द्रकान्ता।, चन्द्रकान्ता सन्तति , भूतनाथ
अनूठी बेगम
किशोरीलाल गोस्वामी तारा , रजिया बेगम
गोपालदास गहमरी सरकटी लाश , जासूस की भूल
लज्जाराम शर्मा आदर्श दम्पति , आदर्श हिन्दू
अयोद्धा सिंह उपाधया
,हरिओध।,
अधलिखा फूल , ठेठ हिंदी का ठाठ
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द्विवेदी युग की महत्वपूर्ण कहानियां एवं कहानीकार।

कहानीकार कहानी
किशोरीलाल गोस्वामी इन्दुमती
लाला भगवदीन प्लेग की चुड़ैल
रामचन्द्र शुकल ग्यारहवर्ष का समय
बंगमहिला दुलाईवली
चंद्रधर शर्मा गुलेरी उसने कहा था
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द्विवेदी युग के महत्वपूर्ण जीवन चरित्र एवं उनके लेखक

जीवन चरित्र लेखक
माधवप्रसाद मिश्र ‘विशुध्द चरितावली ‘
बाबू शिवनन्दन सहाय ‘हरिशचंद्र का जीवन परिचय ‘
शिवनन्दन सहाय‘गोस्वामी ‘ तुलसीदास का जीवन चरित्र
आचार्य रामचंद्र शुक्ल बाबू राधाकृष्ण दास
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छायावाद युगीन गद्य।

छायावाद युगीन गद्य में हिंदी साहित्य की विविध गद्य विधाओं की रचना अपनी चरम सीमा पर थी जिसका विवरण निम्नलिखित है।

नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद के रूप में एक युगांतर उपस्थित हुआ जिनके नेतृत्व में अनेक रचनाएं सामने आई जैसे कल्याणी ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त स्कंदगुप्त। उसके बाद हरि कृष्ण प्रेमी की रचनाएं सामने आती है जैसे स्वर्ण विहीन रक्षाबंधन प्रतिशोध। उसके बाद लक्ष्मी नारायण मिश्र की कुछ रचनाएं सामने आती है जैसे सन्यासी और मुक्ति का रहस्य। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद के उपन्यास सम्राट माना जाता है इनकी प्रमुख रचनाओं में सेवा सदन रंगभूमि कर्मभूमि निर्मला कायाकल्प भवन गोदान आदि शामिल है। प्रेमचंद के अलावा विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक आचार्य चतुरसेन शास्त्री शिवपूजन सहाय पांडेय बेचन शर्मा उग्र भगवती चरण वर्मा आदि उल्लेखनीय उपन्यासकार है।

निबंध के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का महत्वपूर्ण स्थान है इनकी रचनाएं हैं भाव्या मनोविकार घृणा क्रोध साधार करण और व्यक्तिगत चित्रवाद एवं काव्य में रहस्यवाद इत्यादि। इनके सभी निबंध चिंतामणि निबंध संग्रह में संकलित हैं इनके अतिरिक्त शिवपूजन सहाय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पांडेय बेचन शर्मा उग्र वियोगी हरि श्रीराम शर्मा गुलाब राय संपूर्णानंद उल्लेखनीय निबंधकार है।

छायावादोत्तर युगीन गद्य

हिंदी गद्य की सर्वाधिक उन्नति का युग माना जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

महत्वपूर्ण गद्य लेखकों की लेखन शैली की विशेषताएं।

लेखक विशेषतएं
आचार्य हजारीप्रदास दुवेदी पाण्डित्य एंव चिन्तन केसाथ सहजता
एंव सरसता का समन्वय
शान्तिप्रिय दुवेदी प्रभावगररहिणी प्रज्ञा और भावोच्छवासि शैली
रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘विचारशीलता , विषय -वैविध्य एंव व्यक्तितत्व -व्यंजन
भगवतीचरण वर्मा सहज ,व्यावहारिक , प्रवाहपूर्ण एंव व्यंजकभृत
जैनेन्द्र कुमार दार्शिनक मुद्रा एंव मनोवैज्ञानिक निगूढ़ता
अज्ञेय बौद्धौकता
डॉ. नागेन्द्र तर्क प्रधान , विश्लेषणपरक एंव आत्मविशवास
रामवृक्ष बेनीपुरी शव्द चित्रों के लिए प्रिशिद्ध
बनारसीदास चतुर्वेदी संस्मरण ,जीवनियों एंव रेखाचित्र
वासुदेवशरण मिश्रसांस्कृतिक एंव आध्यातिमिक गरिमा
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर राजनितिक संस्मरण एंव रिपोर्ताज
विधानिवासी मिश्र ऐतिहासिक घटनाओं का भावपूर्ण नाटकीय
शैली में प्रस्तुतीकरण
हरिशंकर परसाई वैज्ञानिक दृस्टि , सांस्कृतिक चेतना ,
लोक -साम्प्रतिक एवं आधुनिक जीवन -बोध
फणीश्वरनाथ रेणु ध्वनि -बिंबो का सक्षम प्रयोग
धर्मवीर भारतीगम्भीर एंव विचारपूर्ण गध
शिवप्रसाद सिंह आंचलिकता या लोकचेतना से सम्पृक्त
व्यापक मानवीय चेतना का वाहक
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

प्रयोगवाद

  • साहित्य में प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञ कहलाए इनकी रचनाएं हैं नदी के द्वीप को कोठरी की बात शरणार्थी कहानी।
  • कथा साहित्य में मार्क्स के समाजवाद तथा फ्रायड के मनोविश्लेषण वाद का विशेष प्रभाव पड़ा।
  • रचनाओं में पीढ़ी का जीवन संघर्ष आकांक्षाएं उठाएं विद्रोह तथा नवीन जीवन मूल्यों की तलाश और योग्यता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है जैसे शेखर एक जीवनी बहती गंगा सूरज का सातवां घोड़ा आदि उपन्यासों में है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

गद्य की विभिन्न विधाएं।

गद्दे की विभिन्न प्रमुख विधाओं में निबंध नाटक एकांकी आलोचना उपन्यास कहानी यात्रा वृतांत आत्मकथा जीवनी रिपोर्ताज रेखाचित्र संस्मरण आदि शामिल है।

नाटक

नाटक शब्द की व्युत्पत्ति नट धातु से हुई है जिसका अर्थ सात्विक भावों का प्रदर्शन है नट यानी अभिनय करने वाला से अभिनीत होने के कारण भी यह नाटक कहलाता है। नाटक एक दृश्य काव्य है जिसमें श्रव्य काव्य होने के गुण भी विद्यमान है। जिस नाटक में व्यंग तथा सुरुचिपूर्ण हास्य का पुट देकर सामाजिक धार्मिक एवं राजनीतिक समस्याओं का उद्घाटन किया जाता है वह प्रशासन या रचनात्मक नाटक है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

हिंदी नाटक की विकास की परंपरा।

  • भारतेंदु युग
  • द्विवेदी युग
  • प्रसाद युग
  • प्रसादोत्तर युग
  • समकालीन नाटक

भारतेंदु युग के प्रमुख नाटक।

नाटककार नाटक
भारतेन्दु हरिचन्द्रविधा सुन्दर , चन्द्रावली चरित्र
श्रीनिवासदास तप्त संवरण , प्रहाद चरित्र
अयोध्या सिंह उपाध्या प्रधुमन विजय
सीताराम वर्मा अभिमन्यु वध
काशीनाथ खत्री विधवा विवाह
राजा लक्ष्मण सिंह शकुन्तला (अनुदित )
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

द्विवेदी युग के प्रमुख नाटक

नाटककार नाटक
कृष्ण पप्रकाश सिंह पनना
बद्रीनाथ भट्रट चन्द्रगुप्त
हरिदास मनिका सयोगीता हरण
जीवानन्द शर्मा भारत विजय
बनवारीलाल कृष्ण कथा , कंस वध
माखन लाल चतुर्वेदी कृष्णार्जुन -युद्ध
रामगुलाम लाल धनुष यज्ञ लीला
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

प्रसाद युग के प्रमुख नाटक

नाटककार नाटक
जयशंकर प्रसाद सज्जन ,विशाख ,अजातशत्रु
हरिशंकर प्रेमी रक्षाबंधन ,पाताल विजय ,प्रितरोध
प्रेमचंद कबरला ,संग्राम
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र ‘महात्मा ईसा , चुंबन।,डिक्टेटर
रामवृक्ष बेनीपुरी अंबपाली
सुर्दशन अंजना
विष्वंभर नाथ शर्मा ‘कौशिक ‘हिन्दू विधवा नाटक
उदय शंकर भटटा कमला
रामनरेश त्रिपाठी सुभद्रा
मैथलीशरण गुप्त तिलोत्तमा
लक्ष्मीनारायण मिश्र अशोक ,राजयोग ,सिंदूर की होली , अधिरत
विष्णु प्रभारकर युगे युगे क्रान्ति
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

प्रसादोत्तर युग के प्रमुख नाटक

नाटककार नाटक
उदयशंकर भटटा राधा ,अश्व्थामा ,असुर ,सुंददरी ,की होली ,डिक्टेटर
पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र ‘गंगा का बेटा
हरिकृष्ण प्रेमी आहुति ,
वृंदावन लाल वर्मा
गोविन्द वल्ल्भ पंत
सेठ गोविन्द दास
हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

समकालीन नाटक।

नाटककार नाटक
मोहन राकेश आधे अधूरे, शायद, आषाढ़ का एक दिन
भीष्म साहनी हानूश, माधवी, आलमगीर, रंग दे बसंती चोला
जगदीश चन्द्रमाथुर कोणार्क, पहला राजा, दशरथनन्दन
लक्ष्मीनारायण लाल दर्पण, सुर्यमुख, गुरु, कजरीवन, गंगामाटी
समकालीन नाटक एवं उनके नाटककार

एकांकी

नाटक का ही एक स्वरूप जिसमें केवल एक ही अंत में संपूर्ण नाटक समाप्त हो जाता है उसे एकांकी कहते हैं। एकांकी के प्रचलित प्रमुख वेद एवं उपभेद निरूपक संगीत रूपक रेडियो प्रसन्न स्वागत नाटय आदि। भारतेंदु की एकांकी जैसी प्रमुख रचनाएं विषस्य विषमौषधम् धनंजय विजय अंधेर नगरी वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति भारत दुर्दशा। जयशंकर प्रसाद का एक घूंट सर्वमान्य रूप से हिंदी का प्रथम एकांकी माना जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

डॉ रामकुमार वर्मा ने कहा कि नाटकों का प्रथम संग्रह पृथ्वीराज की आंखें वर्ष 1936 में लिखी। अन्य लेखकों में भुवनेश्वर प्रसाद सेठ गोविंद दास उदय शंकर भट्ट जगदीश चंद्र माथुर उपेंद्र नाथ अश्क विष्णु प्रभाकर गणेश प्रसाद द्विवेदी भगवती चरण वर्मा आदि लेखकों का एकांकी लेखन में उल्लेखनीय योगदान है।

उपन्यास

उपन्यास अर्थात सामने रखना इसमें प्रसाधन का भाव भी नित है अर्थात किसी घटना को इस प्रकार सामने रखना जिससे दूसरों को प्रसन्नता हो।

हिंदी उपन्यास की विकास परंपरा

  • पूर्व प्रेमचंद युग
  • प्रेमचंद युग
  • प्रेमचंदोत्तर युग

पूर्व प्रेमचंद युग के उपन्यास एवं उपन्यासकार

उपन्यास उपन्यासकार
नूतन ब्रह्मचारी बालकृष्ण भटट
लवंगलता, कनक कुसुम, प्रणयनी परिणय किशोरीलाल गोस्वामी
चंद्रकांता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ देवकीनंदन खत्री
अदभुत लाश, गुप्तचर गोपालराम गहमरी
राधाकान्त, सौन्दर्योपासक ब्रजनन्दन सहाय
पूर्व प्रेमचंद युग के उपन्यास एवं उपन्यासकार

प्रेमचंद युग

उपन्यास उपन्यासकार
सेवा सदन, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गोदान प्रेमचन्द
कंकाल, तितली, इरावती जयशंकर प्रसाद
माँ, भिखारिणी, संघर्ष विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक
देहाती दुनिया शिवपूजन सहाय
दिल्ली का दलाल, शराबी पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र
चन्द हसीनों के खतूत आचार्य चतुरसेन शास्त्री
आत्मदाह, व्यभिचार, हृदय की परख सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
अप्सरा, अलका, निरुपमा, प्रभावती प्रेमपथ, अनाथ पत्नी, मुस्कान भगवती प्रसाद वाजपेयी
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प्रेमचंदोत्तर

उपन्यास उपन्यासकार
परख, सुनीता, त्यागपत्र जैनेन्द्र
जहाज का पंछी, घ्रणापथ इलाचन्द्र जोशी
शेखर : एक जीवनी, नदी के द्वीप अज्ञेय
ढलती रात, स्वप्नमयी, कोई तो, संकल्प विष्णु प्रभाकर
पतन, तीन वर्ष, रेखा गोसाईं भगवतीचरण वर्मा
मधुर स्वप्न, जय योधेय, जीने के लिए राहुल सांकृत्यायन
महाकाल, करवट, पीढ़ियाँअमृतलाल नागर
बाणभटट की आत्मकथा, पुनर्नवा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
जुलूष, दीर्घतय, मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु
तमस, बसंती, माड़ी, कुन्तो भीष्म साहनी
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कहानी

कहानी का उद्देश्य एक क्षण में घनीभूत जीवन दृश्य का अंकन अर्थात जीवन का खंड चित्र प्रस्तुत करना होता है। कहानीकार का मर्म जीवन के किसी मार्मिक क्षण में सम्मिलित होकर उसे कलात्मक एवं रोचक ढंग से रूपाय करना। हिंदी की प्रथम आधुनिक कहानी इंदुमती किशोरी लाल गोस्वामी द्वारा रचित है। हिंदी कहानी अर्थात एक नई दिशा की ओर मुड़ी वर्ष 1935 से हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

अन्य सामयिक कहानियाँ

कहानी कहानीकार
दुलाईवाली बंगमहिला
ग्यारह वर्ष का समय रामचन्द्र शुक्ल
उसने कहा था प. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

निबन्ध

अंग्रेजी के ‘ ऐसे ‘ शब्द का पर्याय निबन्ध है जिसका अर्थ है ‘ प्रयास ‘ अर्थात किसी भी विषय के सन्दर्भ में कुछ कहने का प्रयास करना। सामान्यतः निबन्ध का अर्थ है बन्धन में बंधी हुई कोई वस्तु। इसके चार प्रकार होते हैं – वर्णात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक एवं भावात्मक।
इसके उत्कृष्ट निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हुए हैं इनके निबन्ध-संग्रह का नाम चिन्तामणि। अन्य प्रसिद्ध निबंधकार – बाबु गुलाबराय (ठलुआ क्लब ), चतुरसेन शास्त्री (अंतस्थल ), पदुमलाल पुन्नालाल (पंच पात्र )

आलोचना

आलोचना का अभिप्राय – किसी पदार्थ, तथ्य, वास्तु की परख सही रूप में करना या किसी वस्तू को भली प्रकार देखना। आलोचना प्रक्रिया के प्रमुख क्षेत्र – सिद्धांत निरूपण एवं व्याख्या। आलोचना के दो भेद – सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक आलोचना। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

द्विवेदी युग में आलोचना

महावीरप्रसाद द्विवेदी कालिदास की निरंकुशता
मिश्र बन्धु हिन्दी नवरत्न
पदमसिंह शर्मा बिहारी सतसई की भूमिका
श्यामसुन्दर दास साहित्यालोचन, रूपक रहस्य
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी विश्व साहित्य
रामचन्द्र शुक्ला हिन्दी साहित्य का इतिहास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका, गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास

अन्य विधाएँ

आत्मकथा

हिन्दी के आत्मकथा साहित्य में प्रथम आत्मकथा – जैन कवि बनारसीदास की अर्द्धकथा

साहित्यकार साहित्य
भारतेन्दु कुछ आप बीती, कुछ जग बीती
अम्बिकादत्त व्यास निज वृतांत
स्वामी श्रद्धानन्दकल्याण का पथिक
स्वामी सत्यानन्द अग्निहोत्री मुझमें देव जीवन का विकाश
भाई परमानन्द आप बीती
सुभाषचन्द्र बोस तरुण स्वप्न
जवाहरलाल नेहरू मेरी कहानी
राधाकृष्ण सत्य की खोज
के.एम. मुंशी आधे रास्ते और सीधी चटटान
डॉ. राजेंद्र प्रसाद मेरी आत्मकथा
स्वामी भवानीदयाल सन्यासी प्रवासी की आत्मकथा
सत्यदेव परिव्राजक स्वतंत्रता की खोज
बाबू श्यामसुन्दर दास मेरी कहानी
राहुल सांकृत्यायन मेरी जीवन यात्रा
वियोगी हरि मेरा जीवन प्रवाह
बाबू गुलाब राय मेरी असफलताएँ
सुमित्रानन्दन पन्त साठ वर्ष : एक रेखांकन
शांतिप्रिय द्विवेदी परिव्राजक की प्रजा
यशपाल सिंहावलोकन
डॉ. हरिवंशराय बच्चन क्या भूलूँ क्या याद करुँ, नींद का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दासद्वार से सोपान तक
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जीवनी

इतिहास जैसी प्रमाणिकता एवं तथ्यपूर्णता के साथ-साथ साहित्यकता के तत्वों से परिपूर्ण। राष्ट्रीय महापुरुषों की जीवनियाँ अपेक्षाकृत कम लिखी गई।

कलम का सिपाही ( प्रेमचन्द की जीवनी )अमृतराय
कलम का मजदूर ( प्रेमचन्द की जीवनी )मदन गोपाल
निराला की साहित्य साधना ( निराला की जीवनी )डॉ. रामविलास शर्मा
सुमित्रानन्दन पन्त : जीवन और साहित्य शांति जोशी
आवारा मसीहा ( शरत चन्द्र की जीवनी )विष्णु प्रभाकर
चैतन्य महाप्रभु अमृतलाल नागर
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संस्मरण

संस्मरण= सम + स्मरण अर्थात सम्यक स्मरण। बाबूबालमुकुन्द गुप्त ने वर्ष 1907 में प. प्रतापनारायण मिश्र संश्मरण लिखकर इस विधा का सूत्रपात किया

रिपोर्ताज

किसी घटना का यथा तथ्य साध्य वर्णन रिपोर्ताज कहलाता है लेखक का घटना से प्रथम साक्षात्कार आवश्यक होता है। हिंदी में इस विधा का सूत्रपात बंगाल के भयानक अकाल वर्ष 1943 में डॉ रंगे राघव द्वारा तूफानों के बीच से हुआ। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास

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प्रसिद्ध नाटककार पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की कथावस्तु शुंग वंश के शासक सेनापति विक्रम मित्र के शासनकाल और उनके महान व्यक्तित्व पर आधारित है। गरुड़ध्वज मैं आज योग्य प्राचीन भारत के एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया गया है। इसमें धार्मिक संकीर्णता एवं स्वार्थों के कारण विघटित होने वाले देश की एकता एवं नैतिक पतन की ओर नाटककार ने ध्यान आकृष्ट किया है। यह नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति की गरिमा को बनाए रखने का संदेश देता है।

गरुड़ध्वज नाटक

गरुड़ध्वज नाटक में इसमें आश्चर्य विक्रम मित्र कुमार विषम सील कालिदास वासंती मलावती आधे चित्रों के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता राष्ट्रप्रेम राष्ट्रीय एकता नारी स्वाभिमान जैसे गुणों को प्रस्तुत कर समाज में इनके विकास की प्रेरणा दी गई। पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक गरुड़ध्वज ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के सुंग वंश के अंतिम सेनापति विक्रम मित्र के काल से संबंधित होने के कारण ऐतिहासिक है। इसमें तत्कालीन समाज में व्याप्त पाखंड विदेशियों के अत्याचार तथा धर्म एवं अहिंसा के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों के षड्यंत्र का चित्रण किया गया है। इस नाटक में 3 अंक हैं।

गरुड़ध्वज नाटक की कथावस्तु

पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के प्रथम अंक की कहानी का प्रारंभ विदिशा में कुछ प्रहरियों के वार्तालाप से होता है। पुष्कर नामक सैनिक सेनापति विक्रम मित्र को महाराज शब्द से संबोधित करता है तब नाग से उसकी भूल की ओर संकेत करता है। वस्तुतः विक्रम मित्र स्वयं को सेनापति के रूप में ही देखते हैं और शासन का प्रबंध करते हैं। विदिशा सुंगवंशीय विक्रम मित्र की राजधानी है जिसके वह योग्य शासक हैं।

उन्होंने अपने साम्राज्य में सर्वत्र सुख शांति स्थापित की हुई है और बृहद्रथ को मार कर तथा गरुड़ध्वज की शपथ लेकर राज्य का कार्य संभाला है। काशीराज की पुत्री वासंती महाराज की पुत्री मलावती को बताती है कि उसके पिता उसे किसी वृद्ध यवन को सौंपना चाहते थे तब सेनापति विक्रम मित्र ने ही उसका उद्धार किया था। वासंती एक मोर नामक युवक से प्रेम करती थी और वह आत्महत्या करना चाहती थी लेकिन विक्रम मित्र की सतर्कता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पाती।

गरुड़ध्वज नाटक में श्रेष्ठ कवि एवं योद्धा कालिदास विक्रम मित्र को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा के कारण भीष्म पितामह कहकर संबोधन करते हैं और इस प्रसंग में एक कथा सुनाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था हो जाने के कारण विक्रममित्र मित्र वृद्ध हो गए हैं। वे वासंती और एक मोर को महल में भेज देते हैं। मलावती के कहने पर पुष्कर को इस शर्त पर क्षमादान मिल जाता है कि उसे राज्य की ओर से युद्ध लड़ना होगा।

उसी समय साकेत से एक यवन श्रेष्ठ की कन्या कौमुदी का सेनानी देवहूति द्वारा अपहरण किए जाने तथा उसे लेकर काशी चले जाने की सूचना मिलती है। सेनापति विक्रम मित्र कालिदास को काशी पर आक्रमण करने के लिए भेजते हैं और यहीं पर प्रथम अंक समाप्त हो जाता है।

गरुड़ध्वज नाटक के द्वितीय अंक की कथावस्तु

गरुड़ध्वज नाटक का द्वितीय अंक राष्ट्रहित में धर्म स्थापना के संघर्ष का इसमें विक्रम मित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय मिलता है। साथ ही उनके कौशल नीतिज्ञ एवं एक अच्छे मनुष्य होने का भी बोध होता है। इसमें मांधाता सेनापति विक्रम मित्र को अंतालिक के मंत्री हलोधर के आगमन की सूचना देता है। कुरु प्रदेश के पश्चिम में तक्षशिला राजधानी वाला यवन प्रदेश का शासक सुंग वंश से भयभीत रहता है।

उसका मंत्री हेलो धर भारतीय संस्कृति में आस्था रखता है वह राज्य की सीमा को वार्ता द्वारा सुरक्षित करना चाहता है। विक्रम मित्र देव मूर्ति को पकड़ने के लिए कालिदास को काफी भेजने के बाद बताते हैं कि कालिदास का वास्तविक नाम वीरेंद्र है जो 10 वर्ष की आयु में ही बौद्ध भिक्षु बन गया था। उन्होंने उसे विदिशा के महल में रखा और उसका नया नाम कालिदास रख दिया।

गरुड़ध्वज नाटक में काशी का घेरा डालकर कालिदास का सिराज के दरबार में बहुत आचार्यों को अपनी वैधता से प्रभावित कर लेते हैं तथा देव भूत एवं काशीराज को बंदी बनाकर विदिशा ले आते हैं। विक्रम मित्र एवं हेलो धर के बीच शांति वार्ता होती है जिसमें हेलो धर विक्रम मित्र की सारी शर्तें स्वीकार कर लेता है तथा अंतलिक द्वारा भेजी गई भेंट विक्रम मित्र को देता है।

भेंट में स्वर्ण निर्मित एवं रत्न जड़ित गरुड़ध्वज भी है। वह विदिशा में एक शांति स्तंभ का निर्माण करवाता है। इसी समय कालिदास के आगमन पर वासंती उसका स्वागत करती है तथा पीड़ा पर पड़ी पुष्पमाला कालिदास की गले में डाल देती है। इसी समय द्वितीय अंक का समापन हो जाता है।

गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथावस्तु

गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथा अवंती में घटित होती है। गर्धभिल्ल के वंशज महेंद्रादित्य के पुत्र कुमार विषम सील के नेतृत्व में अनेक वीरों ने शकों के हाथों से मालवा को मुक्त कराया। अवंती में महाकाल के मंदिर पर गरुड़ध्वज शहर आ रहा है तथा मंदिर का पुजारी वासंती एवं मलावती को बताता है कि युद्ध की सभी योजनाएं इसी मंदिर में बनी है। गरुड़ध्वज नाटक में राजमाता से विषम सील के लिए चिंतित ना होने को कहा जाता है क्योंकि सेना का संचालन स्वयं कालिदास एवं मांधाता कर रहे हैं।

गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथावस्तु

काशीराज अपनी पुत्री वासंती का विवाह कालिदास से करना चाहते हैं जिसे विक्रम मित्र स्वीकार कर लेते हैं। विषम सील का राज्य अभिषेक किया जाता है और कालिदास को मंत्री पद सौंपा जाता है। राजमाता जैन आचार्यों को क्षमा दान देती हैं। और जैन आचार्य अवंति का पुनर्निर्माण करते हैं।

कालिदास की मंत्रणा से विषम सील का नाम आचार्य विक्रम मित्र के नाम से पूर्व अंश विक्रम तथा पिता महेंद्र आदित्य के बाद के अंश आदित्य को मिलाकर विक्रमादित्य रखा जाता है। गरुड़ध्वज नाटक में विक्रम मित्र काशी एवं विदिशा राज्यों का भार भी विक्रमादित्य को सौंपकर स्वयं सन्यासी बन जाते हैं। कालिदास अपने स्वामी विक्रमादित्य के नाम पर उसी दिन से विक्रम संवत का प्रवर्तन करते हैं नाटक की कथा यहीं पर समाप्त हो जाती है।

गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर कालिदास का चरित्र चित्रण।

गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में कालिदास एक प्रमुख पात्र है यह बात सर्वविदित है कि कालिदास जैसा उच्च कोटि का नाटक का कोई दूसरा नहीं है वह इस नाटक में एक पात्र के रूप में उपस्थित है किंतु एक नवीन रूप में उसकी चारित्रिक विशेषताएं इस प्रकार हैं–

  1. महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के महा कवि के रूप में विख्यात है। उनके कवित्व के समक्ष सभी नतमस्तक हैं। कुमार विषम सील विक्रमादित्य से कहते हैं–”इतना तो होता कि मेरे साथ रहने पर कवि राजा होते और मैं होता कवि”
  2. शिव के भक्त वह महान शिव भक्त हैं महाकाल के मंदिर के पुजारी के कथन से उनके शिव भक्त होने की पुष्टि की जाती है कालिदास सेव है संसार के सारे राज्य के लिए भी वह शिव की उपासना नहीं छोड़ सकते।
  3. कविता के प्रति गंभीर कालिदास ने अपनी कविता में उचित अनुचित का पूर्ण ध्यान रखा है उन्होंने कविता को कवि कर्म और धर्म माना। उन्होंने अपनी प्रेमिका के आग्रह पर भी कमी प्रसिद्धि के विपरीत कविता करने से मना कर दिया।
  4. वीर सेनापति प्रस्तुत नाटक में महाकवि कालिदास को एक नवीन रूप से प्रस्तुत किया गया है। वे केवल कोमल मन कवि ही नहीं है वरण महावीर भी है। वे जिस कुशलता से लेखनी चलाते हैं उसी कुशलता से तलवार भी चलाते हैं। सेना का संचालन करने में वे अत्यंत निपुण है।
  5. व्यक्ति पूजा के विरोधी व्यक्ति पूजा के विरोधी हैं। व्याधि कवि के इस कार्य से सहमत नहीं दिखते कि उन्होंने राम को देवता के रूप में प्रस्तुत किया। उन्हीं से प्रेरणा लेकर लोगों ने सामान्य जन को देवता के रूप में प्रतिष्ठित करने का घृणित कार्य आरंभ किया।
  6. मानवतावादी वे देवत्व में  विश्वास नहीं करते वह तो सच्चे मानव में ही देवत्व के दर्शन करते हैं। वे मनुष्य को देवता से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं देवत्व का अहंकार सबके लिए शुभ भी नहीं है मैं तो अब देवता को मनुष्य बना रहा हूं मनुष्य से बढ़कर देवता होता भी नहीं।
  7. श्रृंगारी कवि कालिदास श्रंगारी हैं। भेजो अपनी प्रेयसी वासंती को मयूर को गोद में उठाए गले से लिफ्ट आते हुए देखते हैं तो अपनी आकांक्षा को वासंती से प्रकट करते हैं। मनुष्य क्या देवता भी कहीं हो तो इस सुख के लिए तरसने लगे जो आप इस मयूर को दे रखी हैं
  8. गृहस्थ जीवन के प्रति शंकालु कालिदास गृहस्थ जीवन के सफल होने के प्रति सशंकित हैं। यही आशंका व शमशेर पर प्रकट करते हैं कुमारी कल्पना और कुमारी वासंती इन प्रेमिकाओं के साथ निभ सकेगी कभी एक मान करेगी और कभी दूसरी।

इस प्रकार कहां जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में कालिदास विलक्षण पुरुष है। वीर वीर सच्चे मित्र सच्चे प्रेमी और महाकवि हैं। वे शासक भी हैं और शासित भी हैं। वीर वीर न्याय प्रिय तो कठोर और कोमल भी है।

गरुड़ध्वज नाटक के नायक विक्रम मित्र का चरित्र चित्रण

ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक के नायक तेजस्वी व्यक्तित्व वाले आचार्य विक्रम मित्र हैं। नाटक में उनकी आयु 87 वर्ष दर्शाई गई है उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–

  1. तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व आचार्य विक्रम मित्र के तेजस्वी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के कारण ही मंत्री हेलो धर विक्रम मित्र से आतंकित दिखाई देता है।
  2. अनुशासन प्रियता स्वयं अनुशासित जीवन जीने वाले विक्रम मित्र अन्य लोगों को भी अनुशासित रहने के पक्ष में हैं। इसी अनुशासन का डर पुष्कर में उनके द्वारा महाराज शब्द का प्रयोग करने के समय दिखाई देता है।
  3. देश भक्ति महान देशभक्त विक्रम मित्र का संपूर्ण जीवन राष्ट्रीय गौरव को बनाए रखने के लिए समर्पित था। वे राष्ट्र हित के लिए शास्त्र एवं शस्त्र दोनों का प्रयोग करते हैं। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होंने अनेक राज्यों को संगठित किया।
  4. भागवत धर्म के उन्नायक विक्रम मित्र भागवत धर्म के अनुयाई थे तथा जीवन भर उसके प्रति समर्पित रहे। इसी कारण उन्हें पूजा पाठ एवं यज्ञ अनुष्ठान विशेष रूप से प्रिय थे।
  5. दृढ़ प्रतिज्ञा विक्रम मित्र एक गणपति के शासक थे। भीष्म पितामह के समान आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अपनी प्रतिज्ञा को उन्होंने दृढ़ता के साथ पूरा किया।
  6. न्याय प्रिय विक्रम मित्र एक न्याय प्रिय शासक हैं जो न्याय के सामने सभी को समान समझते हैं चाहे वह शुंग वंश से जुड़ा हुआ देवहूति ही क्यों ना हो वह न्याय के संबंध में किसी भी तरह का पक्षपात नहीं देते।
  7. विनम्रता एवं उदारता विक्रम मित्र एक अनुशासन प्रिय एवं दृढ़ प्रकृति के शासक होने के साथ-साथ एक विनम्र एवं उदार व्यक्ति भी हैं। वे अपनी विनम्रता एवं उदारता का कई जगह प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
  8. जनसेवक विक्रम मित्र स्वयं को सत्ता का अधिकारी या सत्ता संपन्न शासक न मानकर जनसेवा की समझते हैं यही कारण है कि वहां महाराज कहलाना पसंद नहीं करते तथा स्वयं को सेनापति के संबोधन में ज्यादा संतुष्टि पाते हैं।

गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर वासंती का चरित्र चित्रण

ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की प्रमुख नारी पात्र वासंती है। अतः इसे ही नाटक की नायिका माना जा सकता है वासंती के पिता द्वारा वृद्धि एवं से उसका विवाह कराए जाने के विरोध में विक्रम मित्र वासंती को विदिशा के महल ले आते हैं तथा उसे सम्मान के साथ सुरक्षा प्रदान करते हैं। बाद में वासंती कालिदास की प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत होती है जिस के चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएं निम्न प्रकार से–

  1. धार्मिक संकीर्णता की शिकार नाटक के कथानक के काल में भारत में एक विशेष प्रकार की धार्मिक संकीर्णता मौजूद थी जिसकी शिकार वासंती भी होती है। उसके व्यक्तित्व में एक अवसाद के साथ-साथ ओज का गुण भी मौजूद रहता है।
  2. विशाल एवं उधार हृदई वासंती का हृदय अत्यंत विशाल एवं उधार है जिसके कारण वह मानव मात्र के प्रति ही नहीं बल्कि जीव मात्र के प्रति भी अत्यंत स्नेह एवं सहानुभूति रखती है। उसमें बड़े छोटे अपने पराए सभी के लिए समान रूप से प्रेम भाव भरा हुआ है।
  3. आत्मग्लानि वह आत्मग्लानि से विक्षुब्ध होकर अपने जीवन से छुटकारा पाना चाहती है। इसी क्रम में वह आत्महत्या का प्रयास भी करती है परंतु विक्रम मित्र के कारण उसका यह प्रयास असफल हो जाता है।
  4. स्वाभिमानी बसंती अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद अपना स्वाभिमान नहीं खोती। वह किसी भी ऐसे राजकुमार के साथ विवाह करने को राजी नहीं है जो विक्रम मित्र के दबाव के कारण ऐसा करने के लिए विवश हो।
  5. विनोद प्रिय वासंती निराश एवं विक्षिप्त होने के बावजूद विनय प्रिय नजर आती हैं वह कालिदास के काव्य रस का पूरा आनंद उठाती है।
  6. आदर्श प्रेमीका वासंती एक सुंदर एवं आदर्श प्रेमिका सिद्ध होती है वह निष्कलंक एवं पवित्र है वह अपने उज्ज्वल चरित्र एवं शुद्ध विशाल हृदय के साथ कालिदास को प्रेम करती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में वासंती एक आदर्श नारी पात्र एवं नाटक की नायिका है जिसका चरित्र अनेक आधुनिक स्त्रियों के लिए भी अनुकरणीय है।

गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर नायक का मलयवती का चरित्र चित्रण।

पंडित लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के नारी पात्रों में मलयवती एक प्रमुख महिला पात्र है। इसका चरित्र अत्यधिक आकर्षक सरल एवं विनोद प्रिय है मायावती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. रूपवती वह मलय देश की राजकुमारी है। वह अत्यधिक रूपवती है एवं उसका व्यक्तित्व सरल सहज एवं आकर्षक है। उसके रूप सौंदर्य को देखकर ही कुमार विषम सील विदिशा के राज प्रसाद के उपवन में उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गए थे।
  2. आदर्श प्रेमीका वह एक आदर्श प्रेमिका है। कुमार विषम सील के प्रति उसके हृदय में अत्यधिक प्रेम है। वह उसका मन से वरण करने के उपरांत एक निष्ठा भाव से उसके प्रति आसक्त है। उसके प्रति उसका प्रेम सच्चा है उसे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है कि वह उसे प्राप्त कर लेगी। विषम शील को प्राप्त करने की अपनी दृढ़ इच्छा प्रकट करते हुए वह कहती है कि तब मुझे अपने आप में पूर्ण विश्वास है मैं उन्हें अपनी तपस्या को खो दूंगी निर्विकार शंकर प्राप्त हो गए और वे प्राप्त न होंगे।
  3. विनोद प्रिय स्वभाव राजकुमारी प्रसन्न चित्त एवं विनोदी स्वभाव की है वह अपनी प्रिय सखी वासंती से अनेक अवसरों पर खास प्रयास करती हैं। रात भर के द्वारा उसे महाकवि के द्वारा कही गई बातों के बारे में बताने पर वहां महाकवि पर व्यंग करते हुए कहती हैं कि क्यों महाकवि को यह सूजी है इस पृथ्वी की सभी राजकुमारियां कुमार हो जाए तब तो अच्छी रही। कह देना महाकवि से इस तरह की उलटफेर में कुमारों को खुमारियां होना होगा और महाकवि भी कहीं उस चक्र में रह जाए।
  4. ललित कलाओं में रुचि उनका संगीत चित्रकला इत्यादि ललित कला में रुचि थी वह ललित कलाओं को सीखने व उन में निपुण होने के लिए विदिशा जाती हैं। जहां वह मलय देश के चित्र कला व संगीत कला को भी सीखते हैं।

अतः गरुड़ध्वज नाटक में मलायवती के चरित्र एवं व्यक्तित्व में सद्गुणों का समावेश है। अपने इन्हीं गुणों एवं स्वभाव के कारण वह एक आदर्श राजकुमारी के रूप में नाटक में प्रस्तुत हुई है। उनका सरल सहज और आकर्षक व्यक्तित्व उन्हें और अधिक आकर्षक बनाता है।

गरुड़ध्वज नाटक के आधार पर काशीराज का चरित्र चित्रण।

गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में काशी राज काशी प्रदेश का राजा है जो स्वार्थी अवसर दाई है काशीराज की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं।

  1. कायर गरुड़ध्वज नाटक में काशीराज भवनों के साथ युद्ध न करके संधि प्रस्ताव में अपनी पुत्री को मेन इंद्र के पुत्र को दान में दे देता है जिसकी आयु 50 वर्ष की थी इससे स्पष्ट होता है कि काशीराज एक कायर प्रवृत्ति का व्यक्ति है।
  2. स्वार्थी अवसरवादी काशीराज कालिदास द्वारा बंदी बनाकर विक्रम मित्र के पास विदिशा लाया गया। जहां उसने अपनी पुत्री के साथ साथ कालिदास को भी मांग लिया। वह जानता था कि विक्रम मित्र कालिदास के पुत्र वात्सल्य रखते हैं। फिर भी उसने अवसर का लाभ उठाया।
  3. आत्मग्लानि गरुड़ध्वज नाटक में वह वासंती के समक्ष पश्चाताप करता है और कहता है युद्ध क्या कर सकूंगा अब जब आशिकी अवस्था थी तब तो मैं बिच्छू मंडली में धर्मा लाभ करता रहा। इस देश के सभी मांडलिक और गुण मुख्य आज युद्ध में है मैं ही तो ऐसा हूं जो इस कर्तव्य से वंचित हूं मैं बड़ा अभागा हूं किंतु तुम्हारे आंसू इस ह्रदय को छेद देंगे हाय।
  4. विलापी तथा देश प्रेमी काशीराज अपने देश में मातृप्रेम के लिए अत्यंत चिंतित है जिस पर किसी समय बहुत 2 का आधिपत्य था आज उस भूमि पर भवनों का अधिकार है जिसके लिए वह विलाप करता हुआ कहता है कि मातृभूमि और जातीय गौरव के प्रति निष्ठा बौद्ध में नहीं होती वत्स। किसी भी संकीर्ण घेरे में रहना नहीं चाहते।

निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में काशीराज स्वार्थी कायर राजा होने के साथ-साथ उसने अपने देश के प्रति प्रेम व देशभक्ति जैसे गुण भी निहित है।

यह भी पढ़िए – त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु।

प्रसिद्ध साहित्यकार रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य ऐतिहासिक काव्य है। त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु में छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन के त्याग तब और सात्विकता का वर्णन किया गया है साथ ही भारत की राजनीतिक एकता संघर्ष हर्ष की वीरता और उनके द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से भगाने का वर्णन किया गया है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

त्यागपथी खंडकाव्य का प्रथम सर्ग (त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु)

राजकुमार हर्षवर्धन वन में शिकार खेलने में व्यस्त थे तभी उन्हें पिता के रोग ग्रस्त होने का समाचार मिला। कुमार तुरंत लौट आए और पिता को रोग मुक्त करने के लिए वह बहुत उपचार करवाते हैं परंतु असफल रहते हैं इसी के साथ उनके बड़े भाई राज्यवर्धन उत्तरापथ पर हूणो से युद्ध करने में लगे हुए थे। हर्ष ने दूत भेजकर पिता की अस्वस्थता का समाचार उन तक पहुंचाया।

त्यागपथी खंडकाव्य

त्यागपथी खण्डकाव्य में उधर उनकी माता अपने पति की अस्वस्थता को बढ़ता हुआ देखकर आत्मदाह करने का निश्चय किया और बहुत समझाने पर भी वह अपने निर्णय पर अडिग रही और पति की मृत्यु से पूर्व ही आत्मदाह कर लिया। कुछ समय पश्चात हर्ष के पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता का अंतिम संस्कार करके हर्ष दुखी मन से राजमहल लौट आई। खंडकाव्य के प्रथम सर्ग में इस प्रकार की कहानी का वर्णन किया गया है तथा हर्ष के शुरुआती संघर्षों को दर्शाया गया है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

त्यागपथी खंडकाव्य का द्वितीय सर्ग

पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर राज्यवर्धन भी अपने नगर लौट आए। माता पिता की मृत्यु से व्याकुल होकर उन्होंने वैराग्य लेने का निश्चय किया। परंतु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मानव राज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री को बंदी बना लिया है और उसके पति ग्रहवर्मन को मार डाला है। यह सुनकर राज्यवर्धन सब कुछ भूल कर मालव राज को परास्त करने चल पड़ते हैं।

वह गॉड नरेश को हरा देते हैं पर गोड नरेश धोखे से मार्ग में उनकी हत्या करवा देता जब यह समाचार हर्षवर्धन को ज्ञात होता है तो वह विशाल सेना लेकर गॉड नरेश से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं परंतु तभी सेनापति से अपनी बहन के वन में जाने का समाचार मिलता है जिसे सुनकर वहां अपनी बहन को खोजने बनकर चल पड़ते हैं वहां एक बिच्छू द्वारा उन्हें राजश्री के आत्मदाह करने की बात पता चलती है शीघ्र ही वहां पहुंचकर वह अपनी बहन को ऐसा करने से रोक लेते हैं और कन्नौज लौट आते हैं। इस संघ में इतना ही बताया गया है इससे आगे की कहानी अगले सर्ग में बताई गई है।

त्यागपथी खंडकाव्य का तृतीय सर्ग

इस सर्ग में सम्राट हर्ष की इतिहास प्रसिद्ध दिग्विजय का वर्णन है 6 वर्षों तक निरंतर युद्ध करते हुए हर्ष ने समस्त उत्तराखंड को जीत लिया। रनिंग कश्मीर मिथिला बिहार बोर्ड उत्कल नेपाल बल्लवी सोरठ आज सभी राज्यों को जीत लिया तथा यवन, हूणो आदि विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को शक्तिशाली एवं सुगठित राज्य बनाया और अनेक वर्षों तक धर्म पूर्वक शासन किया। उनके राज्य में धर्म संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। उन्होंने कन्नौज को ही अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाया। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

खंडकाव्य का चतुर्थ सर्ग

निसर्ग में राजश्री हर्ष और आचार्य दिवाकर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है। यद्यपि राजश्री अपने भाई के साथ कन्नौज के राज्य की संयुक्त रूप से शासिका थी। परंतु मन में तथागत की उपासिका थी। और वह भिक्षुणी बनना चाहती थी। परंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं थे। बाद में आचार्य दिवाकर ने राज्यश्री को मानव कल्याण में लगने का उपदेश दिया। राज्यश्री ने उनके उपदेशों का पालन किया और वह मानव सेवा में लग गई।

खंडकाव्य का पंचम सर्ग

इस सर्ग में हर्ष के त्यागी और रति जीवन का वर्णन किया गया है। हर्ष ने प्रयाग में त्याग व्रत महोत्सव मनाने का निश्चय किया। उन्होंने देश के सभी ब्राह्मणों श्रमिकों भिक्षुओं धार्मिक व्यक्तियों आदि को प्रयास में आने के लिए निमंत्रण दिया और संपूर्ण संचित कोष को दान देने की घोषणा की।

प्रतिवर्ष माघ के महीने में त्रिवेणी तट पर विशाल मेला लगता था इस अवसर पर प्रति पांचवे वर्ष हर्षवर्धन अपना सर्वस्व दान कर देते थे तथा अपनी बहन राजश्री से मांग कर वस्त्र धारण करते थे। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

इस प्रकार भी एक साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी राजधानी वापस लौटे थे। इस दान गोवा प्रजा ऋण से मुक्ति का नाम दे देते थे इस प्रकार कर्तव्य परायण त्यागी परोपकारी परमवीर महाराजा हर्षवर्धन का शासन सब प्रकार से सुख कर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता था। सम्राट हर्षवर्धन के माध्यम से कवि ने तत्कालीन श्रेष्ठ शासन का उल्लेख करते हुए भारतीय धर्म राजनीति संस्कृति और समाज की उन्नति का उत्कृष्ट वर्णन किया है।

त्यागपथी खंडकाव्य के नाम की सार्थकता

त्यागपथी नाम की सार्थकता रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य सम्राट हर्षवर्धन के जीवन वृत्त पर आधारित है। सम्राट हर्षवर्धन का संपूर्ण जीवन संघर्ष एवं त्याग की कहानी है। इस महान सम्राट ने तत्कालीन युग के छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त भारत कोई विशाल साम्राज्य सूत्र में बांधकर शांति शक्ति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त किया। वे प्रजा की वास्तविक उन्नति चाहते थे।

उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से राष्ट्र की रक्षा की थी। शांति स्थापना के बाद जब उन्होंने एक संगठित साम्राज्य की स्थापना कर ली तब भी उन्होंने विलासिता की राह नहीं पकड़ी और उन्होंने अपना  सर्वस्व त्याग करने का दृढ़ निश्चय किया। इस संकल्प के कारण वे तीर्थराज प्रयाग में प्रत्येक 5 वर्ष बाद अपने कोष का सर्वस्व दान कर देते थे। किसी राजपुरुष तथा सम्राट मैं त्यागी यह अलौकिक ज्योति भरी हुई हो तो वह त्यागपथी ही कहलाएगा। अतः स्पष्ट है के त्यागपथी खंडकाव्य के नाम की सार्थकता क्या है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

खंडकाव्य के कथानक की ऐतिहासिकता

त्यागपथी खंडकाव्य में सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन की कथा का वर्णन हुआ है कवि ने हर्षवर्धन के माता पिता की मृत्यु भाई बहनोई की हत्या कन्नौज के राज्य संचालन मानव राज शासक से युद्ध हर्ष द्वारा दिग्विजय करके धर्म शासन की स्थापना तथा प्रत्येक पांचवे एवं तीर्थराज प्रयाग से सर्वस्व दान करने की ऐतिहासिक घटनाओं को अत्यधिक सरल एवं सरस रूप में प्रस्तुत किया है। खंडकाव्य की कथावस्तु यज्ञ पर ऐतिहासिक है तथा कवि ने अपनी कल्पना शक्ति का समन्वय कर इसे अत्यंत रचनात्मक बना दिया है।

पात्र एवम् चरित्र चित्रण

त्यागपथी खंडकाव्य प्रभाकर वर्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती उनके दो पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन एक पुत्री राज्यश्री कन्नौज मालव गॉड प्रदेश के राज्यों के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर सेनापति आदि अनेक पात्र हैं। खंडकाव्य के नायक सम्राट हर्षवर्धन है तथा इस काव्य की नायिका हर्ष की बहन राजश्री है।

काव्यगत विशेषताएं

त्यागपथी खंडकाव्य की काव्यगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं

भाव पक्षीय विशेषताएं त्यागपथी खंडकाव्य की भागवत संबंधी विशेषताएं निम्नलिखित हैं

त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
  1. मार्मिकता खंडकाव्य में अनेक मार्मिक घटनाओं का संयोजन किया गया है इसमें हर्षवर्धन की माता का चिता रोहन राज्यवर्धन की वैराग्य हेतु तत्परता राज्यश्री के विधवा होने पर हर्ष की व्याकुलता राज्यश्री द्वारा आत्मदाह के समय हर्षवर्धन के मिलन का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  2. प्रकृति चित्रण इस खंडकाव्य में कवि ने प्रकृति के विभिन्न रूपों का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है। हां खेत के समय हर्षवर्धन को पिता के रोग ग्रस्त होने का समाचार मिलता है वह तुरंत राज महल को लौट आते हैं उस समय के 1 की प्रकृति का एक दृश्य इस प्रकार है।    “वन पशु अविरत, खर सर वर्षण से अकुलाये,

                  फिर गिरि श्रेणी में खोहों से बाहर आए।”

  1. रस निरूपण चपाती में कवि ने करोड़ वीर रूद्र शांत आदर्शों का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं

करुण रस 

“मुझ मंद पुण्य को छोड़ न मां तुम भी जाओ,
छोड़ो विचार यह मुझे चरण से लिपटाओ”

वीर रस 

“कन्नौज विजय को वाहिनी सत्वर,
गुंजित था चारों ओर युद्ध का ही स्वर।”

कलापक्षीय विशेषताएं त्यागपथी खंडकाव्य की क्लागत विशेषताएं निम्नलिखित है

  1. भाषा शैली खंड काव्य की भाषा कथावस्तु और चरण नायक के अनुरूप होती है त्यागपथी की भाषा तत्सम शब्दों से परिपूर्ण है। हर्ष के ज्ञान मानव प्रेम त्याग अहिंसा निष्काम कर्म आज आदर्शों को प्रस्तुत करने के लिए भाषा की तत्सम प्रधानता अनिवार्य थी।
  2. अलंकार योजना त्यागपथी खंडकाव्य में उपमा रूपक तथा उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के स्वभाविक प्रयोग किए गए हैं
  3. छंद योजना संपूर्ण खंडकाव्य 26 मात्राओं के गीत का छंद में रचित है 5 वर्ग का अंत में धना अक्षरी का प्रयोग हुआ है। यह रचना की समाप्ति का ही सूचक नहीं वरन वर्णन की दृष्टि से प्रशस्ति का भी सूचक है।
  4. संवाद शिल्प त्यागपथी खंडकाव्य में कवि ने सरल मार्मिक एवं प्रवाह पूर्ण संवादों का समावेश करके अपनी काव्य और नाटकों क्षमता का परिचय दिया है। अनेक स्थानों पर काम पर नाटिका जैसे आनंद प्राप्त होता है।

“संवाद यदि कोई मिला हो आपको उसका कहीं,
कृष्ण बताएं मैं इसी क्षण खोजने जाऊं वही।”

त्यागपथी खंडकाव्य का उद्देश्य अथवा संदेश

किसी भी साहित्य कृत्य में जब किसी सद्गुणी सदाचारी और महान व्यक्तित्व रखने वाले ऐतिहासिक पुरुष को चित्र किया जाता है तो उसका एकमात्र उद्देश्य जनसाधारण में उन सद्गुणों के प्रति संवेदना जागृत करना होता है। सद्गुणों का व्यक्तित्व प्रतिस्थापन और व्यवहार में उनका अनुकरण ही तो भारतीयता का प्राया है जिसका चित्रण हर्षवर्धन और राज्यश्री के चरित्रों में करके कवि ने युवकों को भारतीयता का संदेश दिया है।

प्रस्तुत खंडकाव्य में हर्षवर्धन के महान गुणों को भावात्मक अभिव्यक्ति देकर उनके असाधारण व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है। कवि का उद्देश्य जनचेतना में विशेष रूप से युवा चेतना में इन सद्गुणों के प्रति भावात्मक संवेदन उत्पन्न करना है। जागपति दांत गुणों के प्रति मन में भावात्मक संदेशों को उत्पन्न करने में सक्षम खंडकाव्य।

खंडकाव्य के नायक हर्षवर्धन का चरित्र चित्रण।

सम्राट हर्षवर्धन थानेश्वर के महाराजा प्रभाकर वर्धन के छोटे पुत्र हैं। वे त्यागपथी खंडकाव्य के नायक हैं। संपूर्ण कथा का केंद्र वही है। संपूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है उन्होंने छिन्न-भिन्न ने भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने का महान कार्य किया। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई  देती  हैं

  1. आदर्श पुत्र एवं भाई त्यागपथी खंडकाव्य में हर्षवर्धन एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भाई के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। जैसे ही पिता के अस्वस्थ होने का समाचार मिलता है वे शीघ्र ही आखेट से लौट आते हैं और यथासंभव उपचार भी करवाते हैं। पिता के स्वस्थ न होने तथा माता के आत्मदाह करने की बात सुनकर वे अत्यंत व्याकुल हो उठते हैं इसी प्रकार बहन राज्यश्री को भी अग्नि दांत से बचाते हैं तथा उसे संपूर्ण राज्य सौंप कर अपने प्रेम का परिचय देते हैं बड़े भाई राज्यवर्धन के प्रति भी उनके मन में अपार स्नेह है।
  2. दानी एवं दृढ़ निश्चय हर्षवर्धन दानी एवं दृढ़ निश्चय है उन्होंने चीन भारत को एक करने का दृढ़ निश्चय किया और इसमें सफल भी रहे भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उन्होंने जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी उनका भी पूर्णता पालन किया। हर्षवर्धन तीर्थराज प्रयाग में प्रत्येक 5 वर्ष पर संपूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं। त्रिवेणी संगम पर प्रयाग में प्रति 5 वर्ष बाद माघ महीने में सर्वस्व त्याग करने का संकल्प लेते हैं अपने जीवन में वे 6 बार इस प्रकार सदस्य दान का आयोजन करते हैं।
  3. महान योद्धा हर्षवर्धन महान योद्धा है तथा उनके पराक्रम के आगे कोई योद्धा टिक नहीं पाता। कोई भी राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका महाराजा हर्षवर्धन की दिग्विजय उनका युद्ध कौशल और उनकी वीरता भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है उनकी वीरता एवं कुशल शासन का ही परिणाम था कि उनका कोई भी दुश्मन सिर नहीं उठा पाया था उनके सामने।
  4. पराक्रमी एवं धैर्य शाली हर्षवर्धन अत्यंत पराक्रमी है साथ ही धैर्य शाली भी हैं। पिता की मृत्यु माता का आत्मदाह बहनोई की मृत्यु और अपने प्रिय भाई राज्यवर्धन की मृत्यु जैसे महान संकटों को उन्होंने अकेले ही सहन किया था। संकट की इस घड़ी में भी उन्होंने कभी अपना धैर्य नहीं छोड़ा।
  5. योग्य एवं कुशल शासक पिता और भाई की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन राजा बने उनका शासन सुख शांति और समृद्धि से परिपूर्ण था। उनके राज्य में प्रजापत प्रकाशित की थी विद्वानों की पूजा की जाती थी तथा सभी प्रजा जन आचरण 1 धर्म पालक स्वतंत्र एवं सुशील थे। वे सदैव जनकल्याण एवं शास्त्र चिंतन में लगे रहते थे वह स्वयं को प्रजा का सेवक समझते थे।

इस प्रकार हर्ष का चरित्र एक वीर योद्धा आदर्श पुत्र आदर्श भाई और महानत्यागी शासक का चरित्र है वह अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक सजग हैं उनका यही गुण आज के भटके हुए युवाओं को प्रेरणा दे सकता है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

त्यागपथी खंडकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र चित्रण

कविवर रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य की प्रमुख स्त्री पात्र राज्यश्री है। वह ममता की मूर्ति माता-पिता की प्रिय पुत्री कन्नौज की रानी और बुध की अनन्य उपासक का है। वह महाराज प्रभाकर वर्धन की पुत्री एवं सम्राट हर्षवर्धन की छोटी बहन है। विवाह के कुछ समय बाद ही उसके पति की मृत्यु हो जाती है और उसे वैधव्य जीवन बिताना पड़ता है। इसके बाद वह अपना संपूर्ण जीवन लोक कल्याण हेतु व्यतीत करती हैं। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  1. आदर्श नारी राज्य श्री आदर्श पुत्री आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। माता पिता की यह लाडली बेटी युवावस्था में ही जब विधवा हो जाती है तो बंदी बना ली जाती है। जब वह भाई राज्यवर्धन की मृत्यु का समाचार सुनती है तो कारागार से भाग निकलती है और वन में भटकती आत्मा दाह के लिए तत्पर हो जाती है किंतु शीघ्र ही वह अपने भाई हर्षवर्धन द्वारा बचा ली जाती है। तब वह तन मन से प्रजा की सेवा में अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर देती है।
  2. धर्म परायण एवं त्यागमयी राज्यश्री का संपूर्ण जीवन त्याग भावना से परिपूर्ण है। भाई हर्षवर्धन उससे सिंहासन पर बैठने का आग्रह करते हैं परंतु वह राज्य सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। वह राज्य वैभव का परीक्षा करके कठोर संयम एवं नियम का मार्ग स्वीकार कर लेती है। माघ मेले में प्रत्येक 5 वर्ष वह भी अपने भाई की बातें सर्वस्व दान कर देती है।–
    “लुटाती थी बहन भी पास का सब तीर्थ स्थल में”
  3. देशभक्त एवं जन सेविका राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक कल्याण की भावना भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर भी वह वैधव्य का दुख जलते हुए देश सेवा में लगी रहती है। इसी कारण वह सन्यासिनी बनने के विचार को छोड़ देती है तथा अपना संपूर्ण जीवन देश सेवा में बता देती है।
  4. ज्ञान संपन्न राज्यश्री शिक्षित है साथ ही वह शास्त्रों के ज्ञान से भी भलीभांति परिचित है। आचार्य दिवाकर मित्र सन्यास धर्म का तात्विक विवेचन करते हुए उसे मानव कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं और इसे वह स्वीकार कर लेती है वह आचार्य की आज्ञा का पालन करती है।
  5. करुणा की साक्षात मूर्ति राज्यश्री करुणा की साक्षात मूर्ति है। उसने माता पिता की मृत्यु और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दुख झेले। इन दुखों की अग्नि में तब कर वह करुणा की मूर्ति बन गई। इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है राज्यश्री एक आदर्श राजकुमारी थी जिसने अपना संपूर्ण जीवन पूर्व सार्थकता और पवित्रता से व्यतीत किया। वह त्याग में और करुणामई थी। इसलिए उसका चरित्र अनुकरणीय है।

त्यागपथी खण्डकाव्य की सम्पूर्ण संक्षेप में कहानी में यही तक था अगर आपको लगता है कि इसमें कुछ और अध्यन सामग्री समाहित करनी है तो या तो आप हमारे कांटेक्ट पेज पर जाकर सीधे हमें राय दे हैं। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु

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ध्रुव यात्रा के नायक रिपुदमन का चरित्र चित्रण एवं ध्रुव यात्रा की कहानी तथा ध्रुव यात्रा का सारांश तथा उद्देश्य और ध्रुव यात्रा कहानी के लेखक सभी के बारे में जानें।

ध्रुव यात्रा

इस प्रश्न पर आधारित 5 अंकों के कथा साहित्य से संबंधित दो प्रश्न पूछे जाते हैं जिसमें कथा की विशेषता एवं उसके तत्व तत्व एवं घटनाएं चरित्र चित्रण तथा भाषा एवं कहानी कला की दृष्टि से समीक्षा संबंधी प्रश्न होते हैं कहानियों पर आधारित जो प्रश्न पूछे जाते हैं वह प्रायः कहानी कला के तत्वों के आधार पर समीक्षात्मक रूप से किसी एक या दो तत्व के आधार पर ही पूछे जाते हैं कहानी में विशेष रुप से कथानक चरित्र चित्रण तथा उद्देश्य तत्व पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

इस प्रकार के प्रश्नों को हल करने के लिए अधिकतम शब्द सीमा 80 शब्द तक होती है 80 शब्द के अंदर आपको इस प्रश्न का उत्तर देना ही होता है इससे ज्यादा न तो अधिक हो जाए मेरा मतलब है कि ऐसा ना हो कि 100 से ऊपर हो जाएं और ऐसा भी ना हो कि 50 से कमरे जाए तो जो एक एवरेज शब्द सीमा होती है उसका मतलब यह है कि 80,70 या 90 इनके बीच में प्रश्न हल हो जाना चाहिए।

ध्रुव यात्रा के नायक रिपुदमन का चरित्र चित्रण कीजिए।

ध्रुव यात्रा के नायक रिपुदमन का चरित्र चित्रण – वचन और प्रेम के प्रति राजा रिपुदमन समर्पित व्यक्ति हैं निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत उनका चरित्र चित्रण किया जा सकता है

  1. विवाह का विरोधी–राजा रिपुदमन विवाह के विरोधी हैं। इसी कारण उनका मानना है कि विवाह से व्यक्ति रुकता है वह बंधता है। वह तब सब का नहीं हो सकता। अपना एक कोलू बनकर उसमें जूता हुआ चक्कर में ही घूम सकता है। अपनी इसी विचारधारा के कारण वह बिना विवाह के ही 1 पुत्र के पिता बन जाते हैं।
  2. पश्चातापी–अपनी गलतियों का जब व्यक्ति को एहसास होता है तो वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है जब अपनी इस भूल का अहसास राजा रिपुदमन को होता है कि उन्होंने अपनी प्रेयसी उर्मिला को अकेला छोड़कर उसके साथ न्याय नहीं किया है, जबकि वह उनके पुत्र की मां बन चुकी है तब उन्हें अपने किए पर अत्यंत पश्चाताप होता है।
  3. यशकामी व्यक्ति–राजा रिपुदमन यस कमाने की कामना रखने वाले व्यक्ति हैं। यही कारण है कि स्वयं से संतुष्ट न होते हुए और केवल अपनी इच्छा से ध्रुव यात्रा न करने की बात को जानते हुए भी वह कहीं भी मीडिया से इस बात की चर्चा नहीं करते उनकी सफल ध्रुव यात्रा में उनकी प्रियसी उर्मिला का महत्वपूर्ण स्थान है। विषय को यात्रा की सफलता का श्रेय देते हुए मीडिया के सम्मुख चुप्पी साधे रहे, क्योंकि वह जानते थे कि यदि वे वास्तविकता का उद्घाटन कर देंगे तो उनकी यात्रा की सफलता का श्रेय उर्मिला को चला जाएगा।
  4. स्वयं से असंतुष्ट–उत्तरी ध्रुव की यात्रा करके राजा रिपुदमन ने भले ही सारे संसार में प्रसिद्ध हो गए हैं, किंतु स्वयं से संतुष्ट नहीं है, क्योंकि वे यह जानते हैं कि उस यात्रा की सफलता के श्रेया की वास्तविक हकदार उनकी प्रियसी उर्मिला है उसे उस तरह से वंचित रखा गया है।

ध्रुव यात्रा की कहानी का सारांश (ध्रुव यात्रा का सारांश )

ध्रुव यात्रा का सारांश ध्रुव यात्रा की कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है यह कहानीकार जैनेंद्र की उत्कृष्ट कहानियों में से एक है इसका सारांश इस प्रकार है–

राजा रिपुदमन बहादुर उर्मिला नामक एक प्रेमिका है जिससे वह पहले विवाह के विषय में अपनी लक्ष्य सिद्धि के कारण मना कर चुका था वह उत्तरी ध्रुव की यात्रा के लिए जाने से पूर्व अपनी प्रेमिका से पति पत्नी में संबंध बना चुका था जिसके परिणाम स्वरूप उनका एक पुत्र भी उत्पन्न हो चुका था। उत्तरी ध्रुव की यात्रा तो उसने पूर्ण कर ली लेकिन उसका मन व्याकुल रहने लगा।

वह भारत लौटा उसके स्वागत की जोर शोर से तैयारियां हुई। वह मुंबई से दिल्ली आ गया। यह सब समाचार उर्मिला समाचार पत्रों में पढ़ती रही। रिपुदमन को नींद कम आती थी, उसका मन पर काबू नहीं रहता था अतः वह उपचार हेतु मारुति आचार्य के पास पहुंचा।

मारुति ने उसे विजेता कहकर पुकारा तो उसने कहा कि मैं रोगी हूं विजेता छल है। उसने रिपुदमन से अगले दिन 3:20 पर आने को कहा तथा डायरी में पूर्ण दिनचर्या एवं खर्च लिखने को कह कर उसे विदा कर दिया। अगले दिन वह समय पर पहुंचा। आचार्य ने सब कुछ देख कर कहा तुम्हें कोई रोग नहीं है। तुम्हें अच्छे संबंध मिल सकते हैं उन्हें चुल्लू विवाह अनिष्ट वस्तु नहीं है वह तो गृहस्थ आश्रम का द्वार है।

लेकिन रिपुदमन ने कोई जवाब नहीं दिया। पति ने परसों मिलने की बात कही। अगले दिन वह सिनेमा गया जहां पर उसकी बेटी उर्मिला से हो गई । वहां बच्चे को लाई थी रिपुदमन ने बच्चे को लेना चाहा लेकिन और मिला उसे अपने कंधे से चिपकाए जीने पर चढ़ती चली गई। उसने घंटी बजा कर एक आदमी को बॉक्स पर बुलाया और दो आइसक्रीम लाने का आदेश दिया। रिपुदमन ने उर्मिला से बच्चे के नाम के बारे में पूछा तो उस ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब नाम तुम ही रखोगे।

उसने दो नाम सुझाए लेकिन उर्मिला ने कहा मैं इसे मधु कहती हूं। सिनेमा देखना बीच में छोड़कर दोनों ने बीती जिंदगी की चर्चा की। रिपुदमन ने कहा उर्मिला तुम अभी भी मुझसे नाराज हो। उर्मिला बोली मैं तुम्हारे पुत्र की मां हूं। तुम अपने भीतर के वेग को शिथिल न करो तीर की भांति लक्ष्य की ओर बढ़ो। याद रखना कि पीछे एक है जो इसी के लिए जीती है। राजा तुम्हें रुकना नहीं है पर अनंत हो यही गति का आनंद है।

राजा ने कहा मैं आचार्य मारुति के यहां गया था और उसने विवाह का सुझाव दिया है। उर्मिला उसे ढोंगी कहती है तथा कहती है कि वह प्रगति शीलता में बाधक है तेजस्विता का अपहरण है। रिपुदमन कहता है कि मुझे जाना ही होगा, तुम्हारा प्रेम दया नहीं जानता। इसके बाद वह दिए गए समय अनुसार मारुति आचार्य से मिलने जाता है। उनके पूछने पर वह उर्मिला के विषय में बताता है।

आचार्य कहता है ठीक है तुम उसी से शादी कर लो, वह धनंजय की बेटी है। वह मेरी ही बेटी है, मैं उसे समझा दूंगा। उर्मिला आचार्य से मिलती है तो वह भी अनेक प्रकार से उसे समझाता है। फिर रिपुदमन उर्मिला से पूछता है कि क्या तुम आचार्य से मिली? अब बताओ मुझे क्या करना है।

वह कहती है कि तुम्हें अब दक्षिणी ध्रुव जाना है। वह सर लैंड द्वीप के लिए जहाज तय कर लेता है तथा परसों जाने की बात कहता है। इस पर उर्मिला कहती है, नहीं राजा, परसों नहीं जाओगे। रिपुदमन कहता है, मिस्त्री की बात नहीं सुनना, मुझे प्रेमिका के मंत्र का वरदान है। यह खबर सर्वत्र फैल जाती है कि रिपुदमन दक्षिणी ध्रुव की यात्रा पर जा रहा है। और मेला भी कल्पना में खोई रहती है–राष्ट्रपति की ओर से दिया गया भोज हो रहा होगा राष्ट्रदूत होंगे सब नायक सब दल पति।

तीसरे दिन उसने अखबार में पढ़ा कि राजा रिपुदमन सवेरे खून में शनि पाए गए गोली का कनपटी के आर पर निशान है अखबारों ने अपने विशेष अंकों में मृतक के तकिए के नीचे मिले पत्र को भी छापा था, उसमें यात्रा को निजी कारणों से किया जाना बताया गया था। कहां था कि इस बार मुझे वापस नहीं आना था दक्षिणी ध्रुव के एकांत में मृत्यु सुखकर होती।

उस पत्र की अंतिम पंक्ति थी मुझे संतोष है कि मैं किसी की परिपूर्णता में काम आ रहा हूं। मैं पूरे होशो हवास में अपना काम तमाम कर रहा हूं। भगवान मेरे प्रिय के अर्थ मेरी आत्मा की रक्षा करें। लक्ष्य के प्रति उड़ान भरी कहानी का करुणामई रूप से अंत हो जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं की कहानी ध्रुव यात्रा एक मनोवैज्ञानिक कहानी है इसमें लक्ष्य प्राप्ति की बात पर कथा नायक राजा रिपुदमन सिंह की अपनी प्रेमिका से खटक गई थी प्रेमिका ने अपने प्रेमी की लक्ष्य निष्ठा पर शान चढ़ाई जिसकी चरम परिणति नायक का करोड़ अंत हुआ अत्यंत संस्था संसार बंधनों से ऊपर होती है कथाकार ने इसी तथ्य को कहानी में साकार किया है रिपुदमन की एक भूल से उर्मिला चिढ़ गई तथा जीवन खंडहर हो गया।

ध्रुव यात्रा कहानी का कथानक।

ध्रुव यात्रा कहानी के कथानक ने प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा के मनोवैज्ञानिक धरातल पर विस्तार पाया है। तथ्य की दृष्टि से कथानक अत्यंत संक्षिप्त है की विवाह अथवा संयोग स्त्री पुरुष के प्रेम की पराकाष्ठा अथवा लक्ष्य नहीं है वरन एक दूसरे के यश कीर्ति के मार्ग की बाधा बने बिना प्राप्त चिरवयोग भी प्रेम की पराकाष्ठा है। वास्तविक प्रेम दूसरे के लक्ष्य और भावनाओं की पूर्ति के लिए किए गए सर्वस्व त्याग में निहित है। कहानी के कथानक में प्रेम मैंने त्याग और समर्पण के अंतर्द्वंद को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया गया है।

यद्यपि कहानी का कथानक स्पष्ट चुटीला और मार्मिक है किंतु पात्रों के अंतर्द्वंदओ की अभिव्यक्ति के कारण कुछ उलझ सा गया है। कहानी के कथानक का आरंभ बड़ी तेज गति के साथ हुआ मगर आगे चलकर उसकी गति धीमी होती चली गई। इतना सब होने के उपरांत भी कथानक के पात्रों के वैचारिक मंथन के कारण सर्वत्र कौतूहलता और रोचकता बनी रही हैं।

कथानक की एक विशेषता यह है कि पात्रों ने मानसिक द्वंद के साथ-साथ पाठकों के भीतर भी एक द्वंद निरंतर चलता रहता है कि अमुक पात्र का ऐसा सोचना क्या उचित है। उसे यहां ऐसा नहीं करना चाहिए उसे अब इस प्रकार का आचरण करना चाहिए। इसी धुंध में पाठक को अनेक बार लगता है कि कथानक का चरमोत्कर्ष आ गया है और इस कथा का अंत इस परिणीति के साथ होता है किंतु अगले ही क्षण उसे अपना मत बदलना पड़ता है। इस प्रकार कहानी का कथानक संक्षिप्त रोचक मार्मिक एवं व्यवस्थित है।

ध्रुव यात्रा कहानी का उद्देश्य

आलोचक कहानी ध्रुव यात्रा का मूल उद्देश्य प्रेम की पवित्रता और पराकाष्ठा की विवेचना एवं वचन पालन के महत्व को प्रतिष्ठित करना है। कहानीकार के अनुसार व्यक्तित्व सुखों की अपेक्षा सर्व भौमिक एवं अलौकिक उपलब्धि श्रेया कर हैं।

निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि ध्रुव यात्रा कहानी तत्वों की दृष्टि से एक सफल मनोवैज्ञानिक कहानी है। वास्तव में ध्रुव यात्रा की कहानी एक प्रेरणा जनक कहानी है। ध्रुव यात्रा की कहानी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ध्रुव यात्रा कहानी का उद्देश्य यही था।

ध्रुव यात्रा कहानी के लेखक कौन हैं

ध्रुव यात्रा कहानी के लेखक का नाम सुप्रसिद्ध कहानीकार जैनेन्द्र कुमार हैं।

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मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित लोकायतन महाकाव्य का एक अंश है इसमें वर्ष 1921 से 1947 तक के मध्य गठित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया गया है। अंग्रेज शासकों ने नमक पर कर बढ़ा दिया था महात्मा गांधी ने इसका डटकर विरोध किया साबरमती आश्रम से 24 दिनों की यात्रा करके दांडी ग्राम पहुंचे और सागर तट पर नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा।

इसके माध्यम से वे अंग्रेजों के इस कानून का विरोध करके जनता में चेतना उत्पन्न करना चाहते थे उनके इस विरोध का आधार सत्य और अहिंसा था। गांधी जी के सत्याग्रह से शासक शब्द हो गए और उन्होंने भारतीयों पर दमन चक्र चलाना आरंभ कर दिया। गांधीजी तथा कई नेताओं को जेल में डाल दिया गया।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य

भारतीय द्वारा जेलें में भरी जाने लगी। जैसे तैसे दमन चक्र आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे मुक्ति यज्ञ भी बढ़ता चला गया गांधीजी ने भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। सब ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया। वर्ष 1927 में भारत में साइमन कमीशन आया जिसका भारतीयों ने बहिष्कार किया। साइमन कमीशन को वापस जाना पड़ा। वर्ष 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो का नारा दिया। अब सब पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।

अंग्रेजों ने फूट डालो की नीति अपनाकर मुस्लिम लीग की स्थापना कर दी। मुस्लिम लीग ने भारत में विभाजन की मांग की । वर्ष 1947 में भारत को पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। अंग्रेजों ने भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन कर दिया। देश में एक और तो स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जा रहा था वहीं दूसरी ओर विभाजन के विरोध में गांधीजी मौन व्रत धारण किए हुए थे। वे चाहते थे कि हिंदू मुस्लिम पारस्परिक वेयर को त्यागकर सत्य अहिंसा प्रेम आदि सात्विक गुणों को अपनाएं एवं मिलजुल कर रहे। इस प्रकार मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य देशभक्ति से परिपूर्ण गांधी युग के स्वर्णिम इतिहास का काव्यात्मक आलेख है।

इसमें उस युग का वर्णन है जब भारत में चारों ओर हलचल मची हुई थी चारों ओर क्रांति की अग्नि धधक रही थी कविवर पंत ने महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से विभिन्न आदर्शों की स्थापना का सफल प्रयास किया है।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य के नामकरण की सार्थकता।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का संपूर्ण कथानक भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है। इसके नायक महात्मा गांधी हैं जो परंपरागत नायकों से हटकर है। इनका यही व्यक्तित्व भारतीय जनता को प्रेरणा और शक्ति देता है। भारत को स्वतंत्र कराने के लिए इन्होंने एक प्रकार से यज्ञ का आयोजन किया जिसमें अनेक देशभक्तों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। देश की मुक्ति के लिए चलाए गए यज्ञ के कारण ही इस खंडकाव्य का नाम मुक्ति यज्ञ रखा गया जो पूर्णतया सार्थक एवं उचित है।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का उद्देश्य।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का उद्देश्य प्रधान रचना है। कवि इस रचना के माध्यम से मनुष्य को परतंत्र भारत की विषम परिस्थितियों से परिचित कराना चाहता है इस उद्देश्य में कभी पूर्णत असफल रहा है।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का उद्देश्य।

कवि ने आधुनिक युग की घटना को खंडकाव्य का विषय बनाया है। उनका उद्देश्य भावी पीढ़ी को देश की आजादी के इतिहास से परिचित कराना है साथ ही गांधी दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रदर्शित करना है। कवि ने पश्चिमी भौतिकवाद दर्शन और गांधीवादी मूल्यों के बीच संघर्ष का चित्रण किया है और अंत में गांधीवादी जीवन मूल्यों की विजय पर शंखनाद किया है।

कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय हिंसा पर अहिंसा की विजय दिखाकर मानवता के प्रति सच्ची आस्था उत्पन्न करना है तथा जन जन में विश्व बंधुत्व और प्रेम की भावना का संचार करना है।

पंत जी ने मुक्ति यज्ञ के माध्यम से लोक कल्याण का संदेश दिया है काव्य के नायक गांधी जी को लोक नायक के रूप में चित्रित कर जातिवाद सांप्रदायिकता और रंगभेद का कट्टर विरोध किया है।

कवि का उद्देश्य केवल स्वतंत्रता संग्राम के दृश्यों का चित्रण करना ही नहीं है अपितु कवि ने शाश्वत जीवन मूल्यों का भी उद्घोष किया है जो सत्य अहिंसा त्याग प्रेम और करुणा की विश्वव्यापी भावनाओं पर आधारित है गांधीवादी दर्शन को माध्यम बनाकर कवि ने विश्व बंधुत्व और मानवतावाद संबंधी आदर्शों की स्थापना की है।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य की कथावस्तु की विशेषताएं।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य की अनेकों विशेषताएं नीचे प्रस्तुत की गई हैं पंत जी द्वारा रचित मुक्ति यज्ञ की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य के कथानक की पृष्ठभूमि अत्यधिक विस्तृत है। इसमें वर्ष 1921 से 1947 तक के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है। प्रमुख रूप से इसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य घटनाओं का वर्णन है।   साथ ही तत्कालीन विश्व की महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध जापान पर गिराए गए परमाणु बमों आदि का भी उल्लेख हुआ है।
    इसकी व्यापकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है किसकी कथावस्तु एक महाकाव्य में समाहित हो सकती थी किंतु पंत जी ने बड़ी कुशलता से इस विशाल फलक को एक छोटे से खंडकाव्य में समेट लिया है। अतः यह कहा जा सकता है कि आकार में लघु होते हुए भी मुक्ति यज्ञ में महाकाव्य जैसी गरिमा है इसे लोकहित की दृष्टि से रचा गया है। कहीं भी काल्पनिक घटनाओं का वर्णन नहीं है। मुक्ति यज्ञ की कथावस्तु का स्वरूप ऐतिहासिक है।
  2. प्रमुख घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य सुनियोजित या सर्गबद्ध रचना नहीं है। इसमें वर्ष 1921 से 1947 तक की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया गया है। कथावस्तु में ऐतिहासिकता का ध्यान रखा गया है। मुक्ति यज्ञ से पूर्व जितने भी खंडकाव्य लिखे गए उन सभी में कथावस्तु इतिहास और पुराणों से ली गई है। यह पहला ऐसा खंडकाव्य है जिस में पहली बार किसी कवि ने आधुनिक युग में घटित घटनाओं पर दृष्टि डाली। इस दृष्टि से इस खंडकाव्य का विशेष महत्व है। इसमें कवि ने आधुनिक इतिहास से सामग्री ग्रहण की है।
  3. गांधीवाद की राष्ट्रीय विचारधारा का चिंतन–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गांधीवादी विचारधारा का चित्रण हुआ है। कथानक इतिहास पर आधारित है। कथा में भावात्मक और काव्यात्मक तरीके से सुंदर मिश्रण किया गया है। इसमें सत्य अहिंसा नारी जागरण आत्मा स्वतंत्रता हरिजनों उद्धार नशाबंदी आधे विचारधाराओं को सुंदर काव्यात्मक रूप प्रदान किया गया है।
  4. सरल अभिव्यक्ति–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गुड तत्वों की सरल अभिव्यक्ति की गई है। कवि ने अलंकारिक ता अथवा प्रतीकात्मक ताकि सहायता नहीं लिए बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा के लिए सरलता का विशेष ध्यान रखा है। कवि ने काव्यालनकारों का प्रयोग नहीं कर के इसे बोझिल होने से बचा लिया है। इस खंड काव्य की प्रमुख विशेषता यह है किस में स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण घटनाओं का समावेश किया गया है।
  5. सफल कथावस्तु–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य की कथावस्तु अत्यंत विशाल है जो एक खंडकाव्य में समाविष्ट नहीं हो सकती। वर्ष 1921 से 1947 तक की घटनाओं को एक खंडकाव्य में वर्णित नहीं किया जा सकता था किंतु पंत जी ने इस काल की प्रमुख घटनाओं को काव्य के कथानक में इस प्रकार जोड़ा है कि संपूर्ण घटनाएं हमारे सामने सजीव हो उठती हैं।

इस प्रकार मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य सत्य पर आधारित खंडकाव्य है इसमें महात्मा गांधी ने जो कुछ भी किया वहां राष्ट्र समाज और मानवता के कल्याण के लिए किया।

मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण।


मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गांधीजी को नायक के रूप में चित्रित किया गया है। वह इस सदी के महानायक हैं। उन्होंने शहंशाह प्रेम भाईचारे के
महान गुणों से विश्व और मानवता का कल्याण किया है, लोगों को परम सुख और संतोष प्रदान किया है। महात्मा गांधी जो कि मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य के नायक हैं उनका चरित्र चित्रण निम्न प्रकार से आधारित है–

  1. सत्य अहिंसा के पुजारी–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गांधी जी सत्य और अहिंसा के महान पुजारी थे। देश में जब चारों और हिंसा की अग्नि धधक रही थी तब उन्होंने सत्य और अहिंसा का सहारा लिया। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि बिना रक्तपात की भी स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। इनी अस्त्रों के बल पर गांधी जी ने अंग्रेजों की नींव हिला कर रख दी। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वह अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और अंततः उन्हीं के सिद्धांतों पर भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
  2. दृढ़ प्रतिज्ञ–महात्मा गांधी अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाले एक साहसी व्यक्ति थे। जिन्होंने जिस कार्य को पूरा करने का संकल्प किया, उसे वह करके ही रहे। कोई बाधा विघ्नों उन्हें पद से विचलित न कर सका। उन्होंने नमक कानून तोड़ने की प्रतिज्ञा को पूरा करके ही दिखाया।
  3. जननायक–महात्मा गांधी जन जन के प्रिय नेता रहे हैं। उनके एक इशारे पर लाखों नर नारी अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के लिए तत्पर रहते थे। भारत की जनता ने उनका पूरा साथ दिया और उनके साथ आजादी की लड़ाई लड़कर अंग्रेजों से अपने देश को मुक्त कराया।
  4. समदर्शी–महात्मा गांधी सब को सम्मान और समान दृष्टि से देखते थे। उनके लिए न कोई बड़ा था और ना ही कोई छोटा था। उन्होंने देश से छुआछूत के भूत को भगाने के लिए अथक प्रयास किया। उनकी दृष्टि में कोई अछूत नहीं था।
  5. मानवता के पुजारी–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य के नायक गांधी जी ने अपना संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि घृणा घृणा से नहीं अपितु तो प्रेम से मरती है। उनमें दया करो ना त्याग संयम विश्व बंधुत्व एवं वीरता के गुण भरे हुए थे।
  6. जाति प्रथा के विरोधी–मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गांधीजी जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उनका मानना था कि भारत जात-पात के भेदभाव में पड़कर अपना विनाश कर रहा है। इस प्रकार मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य के नायक गांधीजी महान लोकनायक सत्य एवं अहिंसा के पुजारी निर्भीक दृढ़ प्रतिज्ञ और साहसी पुरुष के रूप में हमारे सामने आते हैं। कवि ने उनमें सभी लोग कल्याण गुणों का समावेश किया है।

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रश्मिरथी खंडकाव्य रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित है इस खंडकाव्य को 7 भागों में विभाजित किया गया है हम आपको रश्मिरथी खंडकाव्य के सातों भागों का संक्षिप्त वर्णन बताने वाले हैं जो निम्न प्रकार से हैं-

रश्मिरथी प्रथम सर्ग (कर्ण का शौर्य प्रदर्शन)

रश्मिरथी खंडकाव्य
रश्मिरथी खंडकाव्य

रश्मिरथी खंडकाव्य के प्रथम सर्ग में। कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था और उसके पिता सूर्य थे। लोक लाज के भय से कुंती ने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे सूट यानी सारथी ने बचाया और उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर उसका पालन पोषण करना शुरू कर दिया।

सूट के घर पलकर भी कर्ण महान धनुर्धर, शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और दानवीर बना।

एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव पांडव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी दर्शक अर्जुन की धनुर्विद्या के प्रदर्शन को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, किंतु तभी कर्ण ने सभा में उपस्थित होकर अर्जुन को द्वंद युद्ध के लिए ललकारा। कृपाचार्य ने कर्ण से उसकी जाति और गोत्र के विषय में पूछा। इस पर करंट ने स्वयं को सूत पुत्र बताया एवं निम्न जाति का कहकर उसका अपमान किया गया।

उसे अर्जुन से द्वंद युद्ध करने के योग्य समझा गया, पर दुर्योधन कर्ण की वीरता एवं तेजस्विता से अत्यंत प्रभावित हुआ और उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। साथ ही उसे अपना अभिन्न मित्र बना लिया। गुरु द्रोणाचार्य भीकरण की वीरता को देखकर चिंतित हो उठे और कुंती भी कर्ण के प्रति किए गए बुरे व्यवहार के लिए उदास हुई।

रश्मिरथी द्वितीय सर्ग (आश्रम वास)

रश्मिरथी खंडकाव्य के द्वितीय सर्ग में राजपुत्रों के विरोध से दुखी होकर कर कर्ण ब्राह्मण रूप में परशुराम जी के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए गया। परशुराम जी ने बड़े प्रेम के साथ कर्ण को धनुर्विद्या सिखाई। एक दिन परशुराम जी करण की जगह पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक कीड़ा कर्ण की जगह पर चढ़कर खून चूसता चूसता उसकी जांघ में प्रविष्ट हो गया। रक्त बहने लगा पर कर्ण इस असहनीय पीड़ा को चुपचाप सहन करता रहा और शान्त रहा, क्योंकि कहीं गुरुदेव की निद्रा में विघ्न न पड़ जाए।

जंघा से निकलते रक्त के स्पर्श से गुरुदेव की निद्रा भंग हो गई। अब परशुराम को कर्ण के ब्राह्मण होने पर संदेह हुआ। अंत में कर्ण ने अपनी वास्तविकता बताइ। इस पर परशुराम ने कर्ण से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार छीन लिया और उसे श्राप दे दिया। कर्ण गुरु के चरणों का स्पर्श कर वहां से चला गया।

रश्मिरथी तृतीय सर्ग (कृष्ण संदेश)

रश्मिरथी खंडकाव्य तृतीय सर्ग में 12 वर्ष का वनवास और अज्ञातवास की 1 वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर पांडव अपने नगर इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस मांगते हैं लेकिन दुर्योधन पांडवों को एक सुई की नोक के बराबर भूमि देने से भी इंकार कर देता है। श्री कृष्ण संधि प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास आते हैं। दुर्योधन इस संधि के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता और श्री कृष्ण को ही बंदी बनाने का प्रयास करता है। श्री कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर उसे भयभीत कर दिया। दुर्योधन के न मानने पर श्री कृष्ण ने कर्ण को समझाया।

श्री कृष्ण ने कर्ण को उसके जन्म का इतिहास बताते हुए उसे पांडवों का बड़ा भाई बताया और युद्ध के दुष्परिणाम भी समझाएं लेकिन करण ने श्री कृष्ण की बातों को नहीं माना और कहा कि वह युद्ध में पांडवों की ओर से सम्मिलित नहीं होगा। दुर्योधन ने उसे जो सम्मान और स्नेह दिया है वह उसका आभारी है।

रश्मिरथी खंडकाव्य

रश्मिरथी चतुर्थ सर्ग (करण के महादान की कथा)

रश्मिरथी खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग में जब कर्ण ने पांडवों के पक्ष में जाने से इंकार कर दिया तो इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास आए। वह कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेना चाहते थे। कर्ण इंद्र के इस छल प्रपंच को पहचान गया परंतु फिर भी उसने इंद्र को सूर्य के द्वारा दिए गए कवच और कुंडल दान में दे दिए। इंद्र कर्ण कि इस दानवीरता को देखकर अत्यंत लज्जित हुए। उन्होंने स्वयं को प्रवचन कुटिल और पापी का तथा वे प्रसन्न होकर करण को एकघ्नी नामक अमोघ शक्ति प्रदान की।

रश्मिरथी पंचम सर्ग (माता की विनती)

रश्मिरथी खंडकाव्य के पंचम सर्ग में कुंती को चिंता है कि रणभूमि में मेरे ही दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। इससे चिंतित हो वह कर्ण के पास जाती है और उसके जन्म के विषय में सब बताती है। कर्ण कुंती की बातें सुनकर भी दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है किंतु अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पांडव को न मारने का वचन कुंती को दे देता है। कर्ण कहता है कि तुम प्रत्येक दशा में पांच पांडवों की माता बनी रहोगी। कुंती निराश हो जाती है। कर्ण ने युद्ध समाप्त होने के बाद कुंती की सेवा करने की बात कही। कुंती निराश मन से लौट आती है।

रश्मिरथी षष्ठ सर्ग (शक्ति परीक्षण)

रश्मिरथी खंडकाव्य के षष्ठ सर्ग में श्री कृष्ण इस बात से भलीभांति परिचित थे किरण के पास इंद्र द्वारा दी गई एकघ्नी शक्ति है। जब कर्ण को सेनापति बनाकर युद्ध में भेजा गया तो उस श्री कृष्ण ने घटोत्कच को करण से लड़ने के लिए भेज दिया। दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने एकघ्नी शक्ति से घटोत्कच को मार दिया। इस वजह से कल अत्यंत दुखी हुए, पर पांडव अत्यंत प्रसन्न हुए। श्री कृष्ण ने अपनी नीति से अर्जुन को अमोघ शक्ति से बचा लिया था। परंतु कर्ण ने फिर भी छल से दूर रहकर अपने व्रत का पालन किया। रश्मिरथी खंडकाव्य

रश्मिरथी सप्तम सर्ग (करण के बलिदान की कथा)

रश्मिरथी खंडकाव्य के सप्तम सर्ग में कर्ण का पांडवों से भयंकर युद्ध होता है वह युद्ध में अन्य सभी पांडवों को पराजित कर देता है, पर माता कुंती को दिए गए वचन का स्मरण कर सबको छोड़ देता है। कर्ण और अर्जुन आमने-सामने हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। अर्जुन कर्ण के बाणों से विचलित हो उठते हैं। एक बार तो वह मूर्छित भी हो जाते हैं। तभी कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फंस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है, तभी श्री कृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण चलाने की आज्ञा देते हैं।

श्री कृष्ण के संकेत करने पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर प्रहार कर देते हैं। कर्ण की मृत्यु हो जाती है पर वास्तव में नैतिकता की दृष्टि से तो कर ही नहीं रहता है। श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली पर मर्यादा को खो कर।

रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर नायक कर्ण का चरित्र चित्रण।

प्रस्तुत खंडकाव्य रश्मिरथी के आधार पर कर्ण के चरित्र चित्रण निम्नलिखित विशेषताओं के आधार पर किया गया है–

  1. महान धनुर्धर–कर्ण की माता कुंती और पिता सूर्य थे। लोक लाज के भय से कुंती अपने पुत्र को नदी में बहा देती है। तब एक सूट उसका लालन-पालन करता है। सूट के घर पढ़कर भी कर महादानी एवं महान धनुर्धर बनता है। एक दिन अर्जुन रंगभूमि में अपनी बाढ़ विद्या का प्रदर्शन करता है, तभी वहां आकर कड़वी अपनी धनुर्विद्या का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करता है। कर्ण के इस प्रभावपूर्ण प्रदर्शन को देखकर द्रोणाचार्य एवं पांडव उदास हो जाते हैं।
  2. सामाजिक विडंबना का शिकार–क्षत्रिय कुल से संबंधित था लेकिन उसका पालन पोषण एक सूत द्वारा हुआ जिस कारण वह सूत पुत्र कहलाया और इसी कारण उसे पद पद पर अपमान का घूंट पीना पड़ा। तंत्र विद्या प्रदर्शन के समय प्रदर्शन स्थल पर उपस्थित होकर वहां अर्जुन को ललकारा है तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। यहां पर कल को कृपाचार्य की कूट नीतियों का शिकार होना पड़ता है। द्रोपदी स्वयंवर में भी उसे अपमानित होना पड़ता है।
  3. सच्चा मित्र–कर्ण दुर्योधन का सच्चा मित्र है। दुर्योधन कर्ण की वीरता से प्रसन्न होकर उसे अंग देश का राजा बना देता है इस उपकार के बदले भाव विमुक्त होकर कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन जाता है। श्री कृष्ण और कुंती के प्रलोभन को ठुकरा देता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि मुझे स्नेह और सम्मान दुर्योधन ने ही दिया अतः मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है। वह तो सब कुछ दुर्योधन पर न्योछावर करने को तत्पर रहता है।
  4. गुरु भक्त–करण सच्चा गुरु भक्त है। वह अपने गुरु के प्रति विनम्र एवं श्रद्धालु है। 1 दिन परशुराम कार्ड की जगह पर सिर रखकर सोए हुए थे तभी एक कीट कड़की जंगा में घुस जाता है रक्त की धारा बहने लगती है वह चुपचाप पीड़ा को सहता है क्योंकि पहनाने से गुरु की नींद खुल सकती थी लेकिन आंखें खोलने पर वह गुरु को अपने बारे में सब कुछ बता देता है गुरु क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं लेकिन वहां अपनी विनय नहीं छोड़ता और गुरु के चरण स्पर्श कर वहां से चला जाता है।
  5. महादानी–कर्ण महादानी है प्रतिदिन प्रात काल संध्या वंदना करने के बाद वह याचिका को दान देता है उसके द्वार से कभी कोई आशिक खाली नहीं लौटा करण की दान शीलता का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है

“रवि पूजन के समय सामने, जो याचकआता था,
मुंह मांगा वरदान करण से अनायास पाता था।”

इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण कर करण के पास आते हैं तदपी वह  इंद्र के छल को पहचान लेता है फिर भी  वह इंद्र को सूर्य द्वारा दिए गए कवच और कुंडल दान में दे देता है।

  1. महान सेनानी–कौरवों की ओर से करण सेनापति बनकर युद्ध भूमि में प्रवेश करता है युद्ध में अपने रण कौशल सेवर पांडवों की सेना में हाहाकार मचा देता है अर्जुन भी करके बड़ों से विचलित हो उठते हैं श्रीकृष्ण भी उसकी वीरता की प्रशंसा करते हैं भीष्म उसके विषय में कहते हैं

“अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे,
तुम मिले कौरवों को वैसे।”

इस प्रकार कहा जाता है कि कर्ण का चरित्र दिव्य एवं उच्च संस्कारों से युक्त है। वह शक्ति का स्रोत है, सच्चा मित्र है, महादानी और त्यागी है। वस्तुतः उसकी यही विशेषताएं उसे खंड काव्य का महान नायक बना देती हैं।

रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर कुंती का चरित्र चित्रण।

कुंती पांडवों की माता है। सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से ही हुआ था। इस प्रकार कुंती के पांच नहीं वरन 6 पुत्र थे।

कुंती के चरित्र को निम्नलिखित विशेषताओं से प्रस्तुत किया जा सकता है–

  1. समाज भीरु–कुंती लोक लाज के भय से अपने नवजात शिशु को गंगा में बहा देती है। वह कभी भी उसे स्वीकार नहीं कर पाती। उसे युवा और वीरता की मूर्ति बने देख कर भी अपना पुत्र कहने का साहस नहीं कर पाती। जब युद्ध की विभीषिका सामने आती है तो वह करण से एक अंत में मिलती है और अपनी दयनीय स्थिति को व्यक्त करती है।
  2. एक ममतामई मां–कुन्ती ममता की साक्षात मूर्ति है। कुंती को जब पता चलता है कि करण का उनके अन्य पांच पुत्रों से युद्ध होने वाला है तो वह कर्ण को मनाने उसके पास जाती है और उसके प्रति अपना ममता का भाव एवं वात्सल्य प्रेम प्रकट करती है। वह नहीं चाहती कि उसके पुत्र युद्ध भूमि में एक दूसरे के साथ संघर्ष करें। यद्यपि कारण उनकी बातें स्वीकार नहीं करता, पर वह उसे आशीर्वाद देती हैं, उसे अंक से बढ़कर अपनी वात्सल्य भावना को संतुष्ट कराती हैं।
  3. अंतर्द्वंद ग्रस्त–कुंती के पुत्र परस्पर शत्रु बने हुए थे। तब कुंती के मन में भीषण अंतर्द्वंद मचा हुआ था, वह बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। पांचों पांडवों और कर्ण में से किसी की भी हानि हो पर वह हानि तो उन्हीं की होगी। वह इस स्थिति को रोकना चाहती थी। परंतु कर्ण के अस्वीकार कर देने पर वह इस नियति को सहने पर विवश हो जाती है ।

इस प्रकार कवि ने रश्मिरथी में कुंती के चरित्र में कई उच्च गुणों का समावेश किया है और इस विवश मां की ममता को महान बना दिया है।

रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण का चरित्र चित्रण।

इस खंडकाव्य में श्री कृष्ण एक मुख्य पात्र की भूमिका निभाते हैं रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. महान कूटनीतिज्ञ–रश्मिरथी खंडकाव्य के श्री कृष्ण में महाभारत के युग के कृष्ण के चरित्र की अधिकांश विशेषता विद्यमान है किंतु मुख्य रूप से उनके कूटनीतिज्ञ स्वरूप का ही चित्रण हुआ है। पांडवों की ओर से भी कूटनीतिज्ञ का कार्य करते हैं। वह कर्ण को दुर्योधन से अलग करना चाहते हैं वह उसे बताते हैं कि वह कुंती का जेष्ठ पुत्र है बल एवं शील में परम श्रेष्ठ है। परंतु कारण उनकी बातों में नहीं आते हैं तब वे पांडवों की ओर से युद्ध संबंधी कूटनीति का प्रयोग करते हैं।
  2. निर्भीक एवं स्पष्ट वादी–श्री कृष्ण निर्भीक एवं स्पष्ट वादी है। वह युद्ध नहीं चाहते पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह कायर है। वे दुर्योधन को बहुत समझाते हैं कि वह अपना हठ छोड़ दे लेकिन जब वह नहीं मानता है तो वह कहते हैं–

“तो ले अब मैं जाता हूं, अंतिम संकल्प सुनाता हूं।
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या कि मरण होगा।”

  1. गुण प्रशंसक–रश्मिरथी के प्रश्न गुण पारखी है और वह व्यक्ति के गुणों की प्रशंसा करने वाले हैं। कर्ण की मृत्यु के उपरांत में अर्जुन से करण के संबंध में कहते हैं–

“मगर, जो हो, मनुष्य श्रेष्ठ था वह,
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्राह्मय था, मन से यति था।”

  1. अलौकिक शक्ति संपन्न–महाभारत के श्री कृष्ण की भांति रश्मिरथी के श्रीकृष्ण भी अलौकिक शक्ति से संपन्न है। वह लीलामय पुरुष है। दुर्योधन को समझाने के लिए श्री कृष्णा राज्यसभा में पहुंचते हैं। उनकी बात न मानकर दुर्योधन उन्हें कैद करने का प्रयास करता है तब श्रीकृष्ण अपना विराट रूप दिखा कर उसे पराजित कर देते हैं।
  2. युद्ध विरोधी–श्री कृष्ण किसी भी मूल्य पर युद्ध रोकना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि युद्ध की परिणाम मानवता के लिए कितनी दुखदाई होती है। पांडवों के दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं और कौरवों से उनके लिए केवल 5 गांव मांगते हैं लेकिन दुर्योधन के ना मानने पर वे सोचते हैं कि यदि कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ दे तो यह युद्ध चल सकता है इसीलिए वह करण के पास जाकर युद्ध की भीषण था तथा दुष्परिणाम से अवगत कराते हैं।
  3. सदाचार का समर्थन करने वाले–श्री कृष्णा सदाचार एवं शील का समर्थन करने वाले हैं। वे समाज एवं मानव जाति के कल्याण के लिए पुरुषार्थ को किसी भी जाति धर्म या जन्म से जुड़ा हुआ नहीं मानते अबे तो उन्हें सच्चा पुरुषार्थ सील और सदाचार युक्त आचरण में दिखाई देता है।

इस प्रकार श्री कृष्ण महान कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्ति संपन्न है। इसके साथ ही वे लोक कल्याण एवं मंगल भावना के नए स्वरूप को भी धारण किए हुए हैं।

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डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार अध्याय में 9 सर्ग है प्रत्येक शर्मा का वर्णन निम्न प्रकार से दिया गया है। श्रवण कुमार का चरित्र चित्रण अपने आप में एक सीख है।

प्रथम सर्ग (अयोध्या )

श्रवण कुमार

अयोध्या के गौरवशाली इतिहास में अनेक महान राजाओं की गौरव गाथा छिपी हुई है अनेक राजाओं जैसे पृथु इस्साकू ध्रुव सगर दिलीप रघु ने अयोध्या को प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचाया। इसी अयोध्या में सत्यवादी हरिश्चंद्र और गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले राजा भागीरथ ने शासन किया। राजा रघु के नाम पर ही स्कूल का नाम रघुवंश पड़ा।

महाराज दशरथ राजा अज के पुत्र थे। अयोध्या के प्रतापी शासक राजा दशरथ ने राज्य में सर्वस्व शांति थी। चारों ओर कला कौशल उपासना संयम तथा धर्म साधना का साम्राज्य था। सभी वर्ग संतुष्ट थे। महाराज दशरथ स्वयं एक महान धनुर्धर थे जो शब्दभेदी बाण चलाने में सिद्धहस्त थे।

द्वितीय सर्ग (आश्रम)

सरयू नदी के तट पर एक आश्रम था जहां श्रवण कुमार अपने वृद्धि एवं नेत्र हीन माता-पिता के साथ सुख एवं शांति पूर्वक निवास करता था। वह अत्यंत आज्ञाकारी एवं अपने माता पिता का भक्त था। उनकी तपस्या के प्रभाव से हिंसक पशु भी अपने हिंसा भूल गए थे।

तृतीय सर्ग (आखेट)

1 दिन गोधूलि बेला में राजा दशरथ विश्राम कर रहे थे तभी उनके मन में आखेट की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने अपने साथी को बुलावा भेजा। रात्रि में सोते समय राजा ने एक विचित्र स्वप्न देखा कि एक हिरण का बच्चा उनके बाण से मर गया और हिरनी खड़ी आंसू आ रही है।

राजा सूर्योदय से बहुत पहले जग कर आखेट हेतु वन की ओर प्रस्थान कर देते हैं। दूसरी ओर श्रवण कुमार माता पिता की आज्ञा से जल लेने के लिए नदी के तट पर जाता है। जल में पात्र डुबाने की धूनी को किसी हिंसक पशु की ध्वनि समझकर राजा दशरथ शब्दभेदी बाण चला देते हैं।

यह बात सीधी श्रवण कुमार को जाकर लगता है वह चित्रकार कर उठता है श्रवण कुमार की चीख सुन राजा दशरथ चिंतित होते हैं।

चतुर्थ सर्ग (श्रवण)

राजा दशरथ के बाण से घायल श्रवण कुमार को यह समझ में नहीं आता है कि उसे किस ने बाण मारा वह अपने अंधे माता पिता की चिंता में व्याकुल है कि अब उसके माता-पिता की देखभाल कौन करेगा

वह बड़े दुखी मन से राजा से कहता है कि उन्होंने एक नहीं बल्कि एक साथ तीन प्राणियों की हत्या कर दी है। उसने राजा से अपने माता-पिता को जल पिलाने का आग्रह किया। इतना कहते ही उसकी मृत्यु हो गई। राजा दशरथ अत्यंत दुखी हुए और से जल लेकर श्रवण कुमार के माता पिता के पास गए।

पंचम सर्ग (दशरथ)

राजा दशरथ दुख एवं चिंता से भरकर सिर झुकाए आश्रम की ओर जा रहे थे। वे अत्यंत आत्मग्लानि एवं अपराध भावना से भरे हुए थे। पश्चाताप आशंका और भय से भर कर के आश्रम पहुंचते हैं।

षष्ठ सर्ग (संदेश)

श्रवण के माता पिता अपने आश्रम में पुत्र के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह इस बात से आशंकित थे कि अभी तक उनका पुत्र लौटकर क्यों नहीं आया।

उसी समय उन्होंने किसी के आने की आहट सुनी। वे राजा दशरथ को श्रवण कुमार ही समझ रहे थे। जब राजा ने उन्हें जल लेने के लिए कहा तो उनका भ्रम दूर हुआ। राजा दशरथ ने उन्हें अपना परिचय दिया और जल लाने का कारण बताया। श्रवण की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके वृद्ध माता-पिता अत्यंत व्याकुल हो उठे।

सप्तम सर्ग (अभिशाप)

सप्तम सर्ग में ऋषि दंपति के करुण विलाप का चित्रण है वह आंसू बहाते हुए विलाप करते हुए नदी के तट पर पहुंचे और विलाप करते करते राजा दशरथ से कहते हैं कि यद्यपि यह प्राप्त में अनजाने में हुआ है पर इसका दंड तो तुम्हें भुगतना ही होगा।

वह शराब देते हैं कि जिस प्रकार पुत्र शोक में मैं प्राण त्याग रहा हूं उसी प्रकार एक दिन तुम भी पुत्र वियोग में प्राण त्याग दोगे।

अष्टम सर्ग (निर्वाण)

श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए सर आपको सुनकर राजा अत्यंत दुखी होते हैं। श्रवण के माता पिता जब रो-रोकर शांत होते हैं तो उन्हें श्राप देने का दुख होता है।

अब पिता को आत्मबोध होता है और वे सोचते हैं कि यह तो नियति का विधान था। तभी श्रवण कुमार अपने दिव्य रूप में प्रकट हुआ और उसने अपने माता-पिता को सांत्वना दी। पुत्र सुख में व्याकुल माता-पिता भी अपने प्राण त्याग देते हैं।

नवम सर्ग (उपसंहार)

राजा दशरथ दुखी मन से अयोध्या लौट आते हैं। वे इस घटना का जिक्र किसी से नहीं करते हैं परंतु राम जब वन को जाने लगते हैं तो उन्हें उस सर आपका स्मरण हो आता है और वह यह बात अपनी रानियों को बताते हैं।

श्रवण कुमार खंडकाव्य का उद्देश्य

डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित प्रस्तुत खंडकाव्य का उद्देश्य है कि पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगी युवा पीढ़ी जीवन मूल्यों से दूर ना हो बच्चे अपने कर्तव्य से विमुख न हो बल्कि वह बड़ों का यथा चित्र सम्मान करें।

आज युवा पीढ़ी में अनैतिकता उद्दंडता और अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है वह अपने गुरुजनों और माता पिता के प्रति श्रद्धा रहित होती जा रही है। अतः आवश्यकता इस बात की है युवा वर्ग में त्याग सहिष्णुता दया परोपकार क्षमा सिलता उच्च संस्कार भावात्मक एकता आदि नैतिक आदर्शों एवं जीवन मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा की जाए।

कवि ने इस खंडकाव्य के माध्यम से युवा वर्ग को श्रवण कुमार की भांति बनने की प्रेरणा दी है। उनकी बातें वह भी अपने जीवन में अपने आचरण में इन आदर्शों को उतार सकें और गर्व से यह कह सके कि मुझे बालों की चिंता नहीं सता रही है मुझे अपनी मृत्यु का भय नहीं है लेकिन मुझे अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता-पिता की चिंता है कि मेरे बाद उनका क्या होगा?

श्रवण कुमार खंडकाव्य के शीर्षक की सार्थकता

डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य का प्रमुख पात्र श्रवण कुमार के रूप में प्रस्तुत किया गया है इस प्रमुख पात्र की चरित्र गत विशेषताओं पर प्रकाश डालना ही कवि का प्रमुख उद्देश्य है। खंडकाव्य का मुख्य उद्देश्य होने के कारण इसका शीर्षक श्रवण कुमार रखा गया है जो कथा अनुसार पूर्णतः उपयुक्त प्रतीत होता है। श्रवण कुमार खंडकाव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व मार्मिक प्रसंग दशरथ का श्रवण कुमार के पिता द्वारा साबित होना है परंतु इस पसंद की अभिव्यक्ति का भान श्रवण कुमार के व्यक्ति से ही बद्ध है।

खंडकाव्य की कथावस्तु के अनुसार दशरथ का चरित्र सक्रियता की दृष्टि से सर्वाधिक है परंतु दशरथ के चरित्र के माध्यम से भी श्रवण कुमार के चरित्र की विशेषताएं ही प्रकाशित हुई है। इस खंडकाव्य के मुख्य पात्र श्रवण कुमार ही है और श्रवण कुमार शीर्षक उपयुक्त है।

श्रवण कुमार का चरित्र चित्रण

डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य का नायक रिसीव पुत्र श्रवण कुमार है। वह सरयू नदी के तट पर अपने अंधे माता पिता के साथ एक आश्रम में रहता है। कवि ने श्रवण कुमार के चरित्र को बड़ी कुशलता पूर्वक चित्रित किया है उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  1. मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार एक आदर्श मातृ पितृ भक्त पुत्र है। वह हमेशा अपने माता-पिता की सेवा करता है। वह अपने माता-पिता का एकमात्र सहारा है। वह उन्हें कावड़ में बिठाकर विभिन्न  तीर्थ स्थानों की यात्रा कराता है। मृत्यु के समीप पहुंचने पर भी उसे सिर्फ अपने माता-पिता की ही चिंता सताती है।
  2. सत्यवादी श्रवण कुमार सत्यवादी है। जब राजा दशरथ ब्रह्म हत्या की संभावना प्रकट करते हैं तो वह उन्हें साफ-साफ बता देता है कि वह ब्रह्म कुमार नहीं है। उसके पिता वैश्य और माता शुद्र है।
  3. क्षमाशील श्रवण कुमार सुभाष से ही बड़ा सरल है उसके मन में किसी के प्रति ईष्र्या द्वेष का भाव नहीं है। दशरथ द्वारा छोड़े गए बाढ़ से आहत होने पर भी उसके मन में किसी प्रकार का क्रोध उत्पन्न नहीं होता है इसके विपरीत वह उनका सम्मान ही करता है।
  4. भाग्यवादी श्रवण कुमार भाग्य पर विश्वास करता है अर्थात जो भाग्य में होता है वही मनुष्य को प्राप्त होता है। मनुष्य को भाग्य के अनुसार ही फल मिलता है उसे कोई टाल नहीं सकता यही जीवन का अटल सत्य है। दशरथ द्वारा बाढ़ लगने में वह उन्हें कोई दोष नहीं देता। इसे वह भाग्य का ही खेल मानता है।
  5. आत्म संतोषी श्रवण कुमार आत्मसंतोषी है। उसे भुवनेश्वर की कोई कामना नहीं है उसके मन में किसी वस्तु के प्रति कोई लोग लालच नहीं है। वह संतोषी जीव है उसके मन में किसी को पीड़ा पहुंचाने का भाव ही जागृत नहीं होता।
  6. भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेम वह भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी है वह माता पिता गुरु और अतिथि को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करता है। अतः कहा जा सकता है कि श्रवण कुमार के चरित्र में सभी उच्च आदर्श विद्यमान है। वह मातृ पितृ भक्त है तो साथ ही क्षमाशील उधार संतोषी और भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी भी है वह खंडकाव्य का नायक है।

श्रवण कुमार खंडकाव्य के आधार पर राजा दशरथ का चरित्र चित्रण।

डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य में दशरथ का चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह एक योग्य शासक एवं आखेट प्रेमी हैं। वह रघुवंशी राजा अज के पुत्र हैं। संपूर्ण खंडकाव्य में वह विद्यमान है। श्रवण कुमार के माता पिता का क्या नाम था?

उनकी चरित्र की विशेषताएं निम्न प्रकार से हैं–

  1. योग्य शासक राजा दशरथ योग्य शासक हैं वह अपनी प्रजा की देखभाल पुत्रवत करते हैं। उनके राज्य में प्रजा अत्यंत सुखी है। चोरी का नामोनिशान नहीं है। उनके शासन में चारों तरफ सुख समृद्धि का बोलबाला है। वह विद्वानों का यथोचित सत्कार करते हैं।
  2. उच्च कुल में उत्पन्न राजा दशरथ का जन्म उच्च कुल में हुआ था। पृथु त्रिशंकु सागर दिलीप रघु हरिश्चंद्र और अज जैसे महान राजा इनके पूर्वज थे।
  3. आखेट प्रेमी राजा दशरथ आखेट प्रेमी है। इसलिए सावन के महीने में जब चारों तरफ हरियाली छा जाती है तब उन्होंने शिकार करने का निश्चय किया। शब्दभेदी बाण चलाने में अत्यंत कुशल है।
  4. अंतर्द्वंद से परिपूर्ण शब्दभेदी बाण से जब श्रवण कुमार की मृत्यु हो जाती है तो वह सोचते हैं कि मैंने यह पाप कर्म क्यों कर डाला? यदि मैं थोड़ी देर और सोया रहता यार रथ का पहिया टूट जाता या कोई रुकावट आ जाती तो मैं इस पाप से बच जाता। उन्हें लगता है कि मैं अब श्रवण कुमार के अंधे माता पिता को कैसे समझाऊं गा कैसे उन्हें तसल्ली दूंगा। दुख तो इस बात का है कि अब युगों युगों तक उनके साथ या पाप कथा चलती रहेगी।
  5. उदार वे अत्यंत उदार हैं। श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए सर आपको वह चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। किसी और को वह इस बारे में बताते नहीं है पर मन ही मन या पीड़ा होना खटकती रहती है।
  6. विनम्र एवं दयालु वह अत्यंत विनम्र एवं दयालु है। अहंकार उनमें लेश मात्र भी नहीं है। वह किसी का दुख नहीं देख सकते। श्रवण कुमार को जब उनका बार लगता है तुम्हें अत्यंत चिंतित हो उठते हैं। वह आत्मग्लानि से भर उठते हैं और उनके माता-पिता के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं। इस तरह राजा दशरथ का चरित्र महान गुणों से परिपूर्ण है प्रायश्चित और आत्मग्लानि की अग्नि में तप कर वे शुद्ध हो जाते हैं।

यह भी पढ़े – सत्य की जीत खंडकाव्य का सारांश।

सत्य की जीत खंडकाव्य की कथा महाभारत के द्रोपति चीर हरण की अत्यंत संक्षिप्त किंतु मार्मिक घटना पर आधारित है। सत्य की जीत खंडकाव्य एक अत्यंत लघु काव्य है जिसमें कभी नहीं पुरातन आख्यान को वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत किया है।

दुर्योधन पांडवों को दूध क्रीडा में खेलने के लिए आमंत्रित करता है और छल प्रपंच से उनका सब कुछ छीन लेता है युधिष्ठिर जुए में स्वयं को हार जाते हैं अंत में वह द्रोपदी को भी दांव पर लगा देते हैं और हार जाते हैं। इस पर कौरव भरी सभा में द्रोपदी को वस्त्र हीन करके अपमानित करना चाहते हैं।

दुशासन द्रौपदी के केस खींचते हुए उसे सभा में लाता है। द्रोपदी के लिए यह अपमान असहाय हो जाता है। वह सभा में प्रश्न उठाती है कि जो व्यक्ति स्वयं को हार गया है उसे अपनी पत्नी को दांव पर लगाने का क्या अधिकार है।

अतः में कौरवों द्वारा विजित नहीं हूं। दुशासन उसका चीर हरण करना चाहता है। उसके इस कुकर्म पर द्रोपदी अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ सत्य का सहारा लेकर उसे ललकार ती है और वस्त्र खींचने की चुनौती देती है।

“ओ–ओ! दुशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध
किसे कहते हैं उसका अपमान
कर आऊंगी मैं इसका बोध।।”

तब दुशासन दुर्योधन के आदेश पर भी उसके चीर हरण का साहस नहीं कर पाता। दुर्योधन का छोटा भाई विकर्ण द्रोपदी का पक्ष लेता है। उसके समर्थन में अन्य सभासद भी दुर्योधन और दुशासन की निंदा करते हैं। क्योंकि वह सभी या अनुभव करते हैं कि यदि आज पांडवों के प्रति होते हुए अन्याय को रोका नहीं गया, तो इसका परिणाम बहुत बुरा होगा। अंततः धृतराष्ट्र पांडवों के राज्य को लौटा कर उन्हें मुक्त करने की घोषणा करते हैं।

सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि ने द्रोपदी के चीर हरण की घटना में श्री कृष्ण द्वारा चीर बढ़ाए जाने की अलौकिकता को प्रस्तुत नहीं किया है। द्रोपदी का पक्ष सत्य न्याय का पक्ष है। तात्पर्य यह है कि जिसके पास सत्य और न्याय का बल हो असत्य रूपी दुशासन उसका चीरहरण नहीं कर सकता। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी और युग के अनुकूल सृजित किया है और नारी के सम्मान की रक्षा करने के संकल्प को दोहराया है।

इस प्रकार प्रस्तुत खंडकाव्य की कथावस्तु अत्यंत लघु रखी गई है कथा का संगठन अत्यंत कुशलता से किया गया है। इस प्रकार सत्य की जीत को एक सफल खंडकाव्य कहना सर्वथा उचित होगा।

सत्य की जीत खंडकाव्य शीर्षक की सार्थकता।

श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित सत्य की जीत खंडकाव्य में द्रोपदी चीर हरण के प्रसंग का वर्णन किया गया है, किंतु यहां सर्वथा नवीन है। अत्याचारों को द्रोपदी चुपचाप स्वीकार नहीं करती वरुण पूर्ण आत्म बल से उसके विरुद्ध संघर्ष करती है। चिल्ड्रन के समय वह दुर्गा का रूप धारण कर लेती है जिससे दुशासन सहन जाता है। सभी गौरव द्रोपदी के सत्य बल तेज और सतीत्व के आगे कांत हीन हो जाते हैं। अंततः जीत उसी की होती है और पूरी राज्यसभा उसके पक्ष में हो जाती है।

सत्य की जीत खंडकाव्य के माध्यम से कवि का उद्देश्य सत्य को असत्य पर विजय प्राप्त करते हुए दिखाना है। खंडकाव्य के मुख्य आध्यात्मिक भाव सत्य की असत्य पर विजय है। अतः खंडकाव्य का शीर्षक सर्वथा उपयुक्त है।

सत्य की जीत खंडकाव्य का उद्देश्य।

सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय दिखाना है सत्य की जीत खंडकाव्य का मूल उद्देश्य माननीय सद्गुणों एवं उदात्त भावनाओं को चित्रित करके समाज में इनकी स्थापना करना है और समाज के उत्थान में नर-नारी का समान रुप से सहयोग देना है।

खंडकाव्य में प्रस्तुत विचारों का प्रतिपादन

सत्य की जीत खंडकाव्य में निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन किया गया है जो निम्न प्रकार से प्रस्तुत है–

  1. नैतिक मूल्यों की स्थापना–सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि ने दुशासन और दुर्योधन के छल कपट, दंभ ईर्ष्या, अनाचार, शस्त्र बल आदि की पराजय दिखा कर उन पर सत्य न्याय प्रेम मैत्री करुणा श्रद्धा आदि मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। कभी का विचार है कि मानव को भौतिकवाद के गड्ढे से निकलकर नैतिक मूल्यों की स्थापना करके ही निकाला जा सकता है।

“जहां है सत्य, जहां है धर्म, जहां है न्याय, वहां है जीत”

  1. नारी की प्रतिष्ठा–सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि ने द्रोपदी को कोमलता एवं श्रंगार की मूर्ति के रूप में नहीं वरन दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया है। कवि ने द्रोपदी को उस नारी का स्वरूप प्रदान किया है जो अपने सतीत्व और मर्यादा की रक्षा के लिए चंडी और दुर्गा बन जाती है। यही कारण है की भारत में नारी की शक्ति को दुर्गा के रूप में स्वीकार किया गया है। द्रोपदी दुशासन से स्पष्ट कह देती है कि नारी का अपना अस्तित्व है वह पुरुष की संपत्ति या भोग्या नहीं है। समय पड़ने पर वहां कठोरता का प्रस्तुतीकरण भी कर सकती है।
  2. स्वार्थ एवं ईर्ष्या का विनाश–आज का मनुष्य स्वार्थी होता जा रहा है। स्वार्थ भावना ही संघर्ष को जन्म देती है। इनके वश में होकर व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। इसी कवि ने द्रोपदी चीर हरण की घटना के माध्यम से दर्शाया है दुर्योधन पांडवों से ईर्ष्या रखता है तथा उन्हें जुए के खेल में छल से पराजित कर देता है और उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है वह द्रोपदी को निर्वस्त्र करके उसे अपमानित करना चाहता है कभी स्वार्थ और ईशा को पतन का कारण मानता है कभी इस खंडकाव्य के माध्यम से यह संदेश देता है कि स्वार्थपरता बैर भाव इस आदेश को हमें समाप्त कर देना चाहिए। और उसके स्थान पर मैत्री सत्य प्रेम त्याग परोपकार सेवा भावना आदि का प्रसार करना चाहिए।
  3. प्रजातांत्रिक भावना का प्रतिपादन–प्रस्तुत खंडकाव्य का संदेश यह भी है कि हम प्रजातांत्रिक भावनाओं का आदर करें कवि ने निरंकुश खंडन करके प्रजातंत्र की उपयोगिता का प्रतिपादन किया है निरंकुशता पर प्रजातंत्र एक अंकुश है राज्य सभा में द्रोपदी के प्रश्न पर जहां दुर्योधन दुशासन और कर अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं वही धृतराष्ट्र अपना निर्णय देते समय जन भावनाओं को पूर्ण ध्यान में रखते हैं।
  4. विश्व बंधुत्व का संदेश–सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि ने यह संदेश दिया है कि सहयोग और शब्दों से ही विश्व का कल्याण होगा।

“जिए हम और जीए सब लोग।”

इससे सत्य अहिंसा और न्याय मैत्री करुणा आदि को बल मिलेगा और समस्त संसार एक परिवार की भांति प्रतीत होने लगेगा।

  1. निरंकुशवाद के दोषों का प्रकाशन–रचनाकार ने स्वीकार किया है कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है तो वह अनैतिक कार्य करने में कोई संकोच नहीं करती। ऐसे राज्य में विवेक कुंठित हो जाता है। भीष्म द्रोण धृतराष्ट्र आदमी दुर्योधन की सत्ता की निरंकुशता के आगे हतप्रभ हैं।

सत्य की जीत खंडकाव्य में इस प्रकार सत्य की जीत एक विचार प्रधान खंडकाव्य है। इसमें सास्वत भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है और स्वार्थ एवं ईर्ष्या के समापन की कामना भी की गई है। कवि पाठकों को सदाचार पूर्ण जीवन की प्रेरणा देना चाहता है। वह उन्नत मानवीय जीवन का संदेश देता है।

सत्य की जीत खंडकाव्य की नायिका द्रौपदी का चरित्र चित्रण।

सत्य की जीत खंडकाव्य में द्वारिका प्रसाद महेश्वरी द्वारा रचित खंडकाव्य सत्य की जीत की नायिका द्रोपदी है। कवि ने उसे महाभारत की द्रौपदी के समान सुकुमार निरीह रूप में प्रस्तुत न करके आत्मसम्मान से युक्त ओजस्वी सशक्त एवं वाकपटु वीरांगना के रूप में चित्रित किया है। सत्य की जीत खंड काव्य की नायिका द्रोपदी का चरित्र चित्रण की विशेषताएं निम्न प्रकार से प्रस्तुत है–

  1. स्वाभिमानी–द्रोपदी स्वाभिमानी है। वह अपमान सहन नहीं कर सकती। वहां अपना अपमान नारी जाति का अपमान समझती है। वह नारी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकती। सत्य की जीत खंडकाव्य की द्रोपदी महाभारत की द्रौपदी से बिल्कुल अलग है। वह असहाय और अगला नहीं है। वह अन्याय और अधर्म रूपी पुरुषों से संघर्ष करने वाली है।
  2. निर्भीक एवं साहसी–द्रोपदी निर्भीक एवं साहसी है। दुशासन द्रौपदी के बाल खींच कर भरी सभा में ले आता है और उसे अपमानित करना चाहता है। तब द्रौपदी बड़े साहस और निर्भीकता के साथ दुशासन को निर्लज्ज और पापी कहकर पुकारती है। जिससे पता चलता है कि द्रोपदी एक निर्भीक एवं साहसी महिला है।
  3. विवेकशील–द्रोपदी पुरुष के पीछे पीछे आंखें बंद करके चलने वाली नारी नहीं है बल्कि विवेक से काम लेने वाली है। वह भरी सभा में यह सिद्ध कर देती है कि जो व्यक्ति स्वयं को हार गया हो उसे अपनी पत्नी को दांव पर लगाने का अधिकार नहीं है। अतः वह कौरवों द्वारा जीती हुई वस्तु नहीं है। इस घटना से स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि नायिका द्रोपदी एक विवेकशील महिला है।
  4. सत्य निष्ठा एवं न्याय प्रिय–द्रोपदी सत्य निष्ठा है साथ ही न्याय प्रिय भी है। वहां अपने प्राण देकर भी सत्य और न्याय का पालन करना चाहती है। जब दुशासन द्रौपदी के सत्य एवं शील का हरण करना चाहता है तब वह उसे ललकार ती हुई कहती है।

“न्याय में रहा मुझे विश्वास,
सत्य में शक्ति अनंत महान।
मानती आई हूं मैं सतत,
सत्य ही है ईश्वर, भगवान।”

  1. वीरांगना–द्रोपदी विवश होकर पुरुष को क्षमा कर देने वाली असहाय और अबला नारी नहीं है। वह चुनौती देकर दंड देने की क्षमता रखने वाली वीरांगना है–

ओ–ओ! दुशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध
किसे कहते हैं उसका अपमान
कर आऊंगी मैं इसका बोध।।”

  1. नारी जाति का आदर्श–द्रोपदी संपूर्ण नारी जाति के लिए एक आदर्श है। दुशासन नारी को वासना एवं भोग की वस्तु कहता है, तो वह बताती है कि नारी वह शक्ति है, जो विशाल चट्टान को भी हिला देती है। पापियों के नाश के लिए वह भैरवी भी बंद सकती है वह कहती है– 

“पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ,
बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
चाहिए नारी का नारीत्व,
तभी होगा यहां पूरा सर्ग।”

अतः संक्षेप में कहा जा सकता है द्रोपदी पांडव कुलवधू,वीरांगना, स्वाभिमानी, आत्म गौरव संपन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, सती साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मंडित एवं नारी जाति का आदर्श है।

सत्य की जीत खंडकाव्य के आधार पर दुशासन का चरित्र चित्रण।

सत्य की जीत खंडकाव्य मैं दुशासन एक प्रमुख पात्र है। यह दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. अहंकारी एवं बुद्धिहीन–दुशासन अत्यंत अहंकारी एवं बुद्धिहीन है। उसे अपने बल पर अत्यंत घमंड है। वह बुद्धिहीन भी है विवेक से उसे कुछ लेना देना नहीं है। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं महत्वपूर्ण मानता है। वह पशु बल में विश्वास करता है। वह भरी सभा में पांडवों का अपमान करता है। सत्य प्रेम अहिंसा की अपेक्षा वह पाशविक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है।
  2. नारी के प्रति उपेक्षा भाव–द्रोपदी के साथ हुए तर्क वितर्क से 10 आसन का नारी के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण प्रकट हुआ है। वह नारी को पुरुष की भोग्य और पुरुष की दासी मानता है। वह नारी की दुर्बलता का उपहास उड़ाता है। उसके अनुसार पुरुष ने ही विश्व का विकास किया है। नारी की दुर्बलता का उपहास उसने इन शब्दों में किया है–

“कहां नारी ने ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम।
जानती है वह केवल पुरुष भुजाओं में करना विश्राम।”

  1. शस्त्र बल विश्वासी–दुशासन शस्त्र बल को सब कुछ समझता है। उसे धर्म शास्त्र और धर्मों में विश्वास नहीं है। वह शस्त्र के समक्ष शास्त्र की अवहेलना करता है। शास्त्र ज्ञाताओं को वह दुर्बल मानता है।
  2. दुराचारी–दुशासन हमारे सम्मुख एक दुराचारी व्यक्ति के रूप में आता है। वहां अपने बड़ों एवं गुरुजनों के सामने अभद्र व्यवहार करने में भी संकोच नहीं करता। द्रोपदी को संबोधित करते हुए दुशासन कहता है–

विश्व की बात द्रोपदी छोड़,
शक्ति इन हाथों की ही तोल।
खींचता हूं मैं तेरा वस्त्र,
पीठ मत न्याय धर्म का ढोल।

  1. सत्य एवं सतीत्व से पराजित–प्रशासन के चीरहरण से असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि हमेशा सत्य की ही जीत होती है। वह जैसे ही द्रोपदी का चीर खींचने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है, वैसे ही द्रोपदी के सतीत्व की ज्वाला से पराजित हो जाता है।

अतः दुशासन के चरित्र की दुर्बलता का उद्घाटन करते हुए डॉ ओंकार प्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं लोकतंत्र या चेतना के इस युग में अभी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दुशासन हैं जो दूसरों के बढ़ते मान सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और संपत्ति को हड़पने के लिए प्रत्यक्षण घात लगाए हुए बैठे रहते हैं। इस काव्य में दुशासन उन्हीं का प्रतीक है। इस खंडकाव्य में दुशाशन को एक नायक के रूप में भी देखा गया है।

सत्य की जीत खंडकाव्य के नायक युधिष्ठिर का चरित्र चित्रण।

सत्य की जीत खंडकाव्य के नायक के रूप में युधिष्ठिर के चरित्र को स्थापित किया गया है। द्रोपदी एवं धृतराष्ट्र के कथनों के माध्यम से युधिष्ठिर का चरित्र उजागर हुआ है। सत्य की जीत खंडकाव्य में युधिष्ठिर का चरित्र महान गुणों से परिपूर्ण है। उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित रुप में प्रस्तुत की गई हैं।

  1. सरल हृदय व्यक्तित्व–युधिष्ठिर का व्यक्तित्व सरल हृदय है तथा अपने समाज ही सभी अन्य व्यक्तियों को भी सरल हृदय ही समझते हैं। अपने इसी गुण के कारण वे दुर्योधन और शकुनि के कपाट रूपी माया जाल में फंस जाते हैं और इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए विवश हो जाते हैं।
  2. धीर गंभीर–युधिष्ठिर ने अपने जीवन काल में अत्यधिक कष्ट भूखे थे, परंतु उनके स्वभाव में परिवर्तन नहीं हुआ। दुशासन द्वारा द्रौपदी का चीर हरण व उसका अपमान किए जाने के पश्चात भी युधिष्ठिर का मौन व शांत रहने का कारण उनकी कायरत या दुर्बलता नहीं थी, बल्कि उनकी धीरता व गंभीरता का गुण था।
  3. अदूरदर्शी–युधिष्ठिर सैद्धांतिक रूप से अत्यधिक कुशल थे परंतु व्यवहारिक रूप से कुशलता का अभाव अवश्य है। वे गुणवान तो है, परंतु द्रौपदी को दांव पर लगाने जैसा मूर्खतापूर्ण कार्य कर बैठते हैं। परिणाम स्वरूप इस कर्म का दूरगामी परिणाम उनकी दृष्टि से ओझल हो जाता है और चीरहरण जैसे कुकृत्य को जन्म देता है। इस प्रकार युधिष्ठिर अदूरदर्शी कहे जाते हैं।
  4. विश्व कल्याण के अग्रदूत–युधिस्टर का व्यक्तित्व विश्व कल्याण के प्रवर्तक के रूप में देखा गया है। इस गुण के संदर्भ में धृतराष्ट्र भी कहते हैं कि–

“तुम्हारे साथ विश्व है, क्योंकि तुम्हारा ध्येय विश्व कल्याण।”

अर्थात धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर के साथ संपूर्ण विश्व को माना है, क्योंकि उनका उद्देश्य विश्वकल्याण मात्र है।

  1. सत्य और धर्म के अवतार–सत्य की जीत खंडकाव्य में युधिष्ठिर को सत्य और धर्म का अवतार माना गया है। इनकी सत्य और धर्म के प्रति अधिक निष्ठा है। युधिष्ठिर के इस गुण पर मुग्ध होकर धृतराष्ट्र ने कहा है कि हे युधिष्ठिर तुम श्रेष्ठ धर्म परायण हो और इन्हीं गुणों के आधार बनाकर बिना किसी भय के अपना राज्य संभालो और राज करो।

निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि सत्य की जीत खंडकाव्य में युधिष्ठिर खंड काव्य के प्रमुख पात्र नायक है जिनमें विश्वकल्याण सत्य धर्म धीर शांत व सरल हृदई व्यक्तित्व का समावेश है।

सत्य की जीत खंडकाव्य परीक्षा के माध्यम से एक बहुत ही महत्वपूर्ण खंडकाव्य है कियोंकि सत्य की जीत खंडकाव्य कई बार काफी परीक्षाओँ में पूछा जा चुका है। आपको हमारा यह आर्टिकल केसा लगा ? आप हमे कमेंट करके बता सकते है अगर आपको लगता है कि हमें और जानकारी इस आर्टिकल में प्रस्तुत करना चाहिए या हमारे द्वारा उपलब्ध कराइ गयी जानकारी इस विषय के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

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डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक महाभारत कालीन प्रसिद्ध पात्र करण के जीवन की घटनाओं पर आधारित है। सूत पुत्र नाटक में पौराणिक कथा को आधार बनाकर वर्तमान भारतीय समाज की जाति वर्ण वर्ग एवं नारी समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया गया है।

सूत पुत्र नाटक में महाभारत के मनस्वी संघर्षशील एवं कर्मठ व्यक्तित्व के स्वामी करण के प्रति पाठकों एवं दर्शकों की सहानुभूति उत्पन्न करने के अतिरिक्त नाटककार ने उन सामाजिक समस्याओं की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है जो आधुनिक समाज में भी व्याप्त हैं। नाटककार ने प्रस्तुत रचना में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुंदर समायोजन किया है।

सूत पुत्र नाटक में नाटककार का उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से भारतीय समाज की विसंगतियों की ओर समाज व पाठक का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है नाटककार ने सभी अंकों को एक सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास किया है। सूत पुत्र नाटक में नारी शिक्षा की समस्या नारी की समाज में विवशता एवं मजबूरियां आदि का चित्रण करके नाटककार ने इसे आज के परिपेक्ष में प्रसांगिक बनाया है।

सूत पुत्र नाटक के प्रथम अंक का सारांश

डॉक्टर गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक के प्रथम अंक का प्रारंभ महर्षि परशुराम के आश्रम के दृश्य से होता है। धनुर्विद्या के आचार्य एवं श्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम उत्तराखंड में पर्वतों के बीच तपस्या लीन है। परशुराम ने व्रत ले रखा है कि वह केवल ब्राह्मणों को ही धनुर्विद्या सिखाएंगे। सूत पुत्र कर्ण की हार्दिक इच्छा है कि वह एक कुशल लक्ष्य भेदी धनुर्धारी बने। इसी उद्देश्य से वह परशुराम जी के आश्रम में पहुंचता है और स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने लगता है।

सूत पुत्र नाटक का सारांश की शुरुआत में नाटक के प्रथम अंक में इसी दौरान एक दिन करण की जंघा पर सिर रखकर परशुराम सोए होते हैं तभी एक कीड़ा कार्ड की जगह को काटने लगता है जिससे रक्त स्राव होता है। करण उस दर्द को सेंड करता है क्योंकि वह अपने गुरु परशुराम की नींद तोड़ना नहीं चाहता। रक्त स्राव होने से परशुराम की नींद टूट जाती है। अतः सूत पुत्र नाटक में करण की सहनशीलता को देखकर उन्हें उसके क्षत्रिय होने पर संदेह होता है।

उनके पूछने पर कर उन्हें सत्य बता देता है। परशुराम अत्यंत क्रोधित होकर कर्ण को श्राप देते हैं कि मेरे द्वारा सिखाई गई विद्या को तुम अंतिम समय में भूल जाओगे और इसका प्रयोग नहीं कर पाओगे। करण वहां से वापस चला आता है।

सूत पुत्र नाटक के द्वितीय अंक की कथावस्तु।

सूत पुत्र नाटक का द्वितीय अंक द्रौपदी के स्वयंवर से आरंभ होता है। राजकुमार और दर्शक एक सुंदर मंडप के नीचे अपने अपने आसन पर विराजमान हैं। खोलते तेल के कड़ाहे के ऊपर एक खंभे पर लगातार घूमने वाले चक्र पर एक मछली है। स्वयंवर में विजई बनाने के लिए तेल में देखकर उस मछली की आंख को भेजना है।

अनेक राजकुमार लक्ष्य भेजने की कोशिश करते हैं और असफल होकर बैठ जाते हैं। प्रतियोगिता में कर्ण के भाग लेने पर राजा द्रुपद आपत्ति करते हैं और उसे अयोग्य घोषित कर देते हैं।

सूत पुत्र नाटक के द्वितीय अंक में दुर्योधन उसी समय करण को अंग देश का राजा घोषित करता है। इसके बावजूद करण का क्षत्रियता एवं उसकी पात्रता सिद्ध नहीं हो पाती है और कर्ण निराश होकर बैठ जाता है। उसी समय ब्राह्मण वेश में अर्जुन एवं भीम सभा मंडप में प्रवेश करते हैं। लक्ष्य भेद की अनुमति मिलने पर अर्जुन मछली की आंख भेज देते हैं तथा राजकुमारी द्रोपदी उन्हें वरमाला पहना देती है।

अर्जुन द्रौपदी को लेकर चले जाते हैं। सुने सभा मंडप में दुर्योधन एवं कर्ण रह जाते हैं। दुर्योधन कर्ण से द्रोपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कहता है जैसे करण नकार देता है। दुर्योधन ब्राह्मण वेश धारी अर्जुन एवं भीम से संघर्ष करता है और उसे पता चल जाता है कि पांडवों को रक्षा गृह में जलाकर मारने की उसकी योजना असफल हो गई है। कर्ण पांडवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है। यहीं पर द्वितीय अंक समाप्त हो जाता है।

सूत पुत्र नाटक के तृतीय अंक की कथावस्तु।

सूत पुत्र नाटक के तृतीय अंक की शुरुआत में अर्जुन एवं करण दोनों देवपुत्र हैं। दोनों के पिता क्रमशः इंद्र एवं सूर्य को युद्ध के समय अपने अपने पुत्रों के जीवन की रक्षा की चिंता हुई। इसी पर केंद्रित तीसरे अंक की कथा है। यह अंक नदी के तट पर करण की सूर्य उपासना से प्रारंभ होता है। करण द्वारा सूर्य देव को पुष्पांजलि अर्पित करते समय सूर्य देव उसकी सुरक्षा के लिए उसे स्वर्ण के दिव्य कवच एवं कुंडल प्रदान करते हैं। वह इंद्र की भाभी चांद से भी उसे सतर्क करते हैं तथा करण को उसके पूर्व वृतांत से परिचित कराते हैं। इसके बावजूद वे कार्ड को उसकी माता का नाम नहीं बताते।

कुछ समय पश्चात इंद्र अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा हेतु ब्राह्मण का वेश धारण कर करण से उसका कवच कुंडल मांग लेते हैं। इसके बदले इंद्रकरण को एक अमोघ शक्ति वाला अस्त्र प्रदान करते हैं जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इंद्र के चले जाने के बाद गंगा तट पर कुंती आती है। वह कर्ण को बताती है कि वही उसका जेष्ठ पुत्र है।

सूत पुत्र नाटक के तृतीय अंक के अंत में वह कुंती को आश्वासन देता है कि वह अर्जुन के सिवा किसी अन्य पांडव को नहीं मारेगा। दुर्योधन का पक्ष छोड़ने संबंधी कुंती के अनुरोध को करण अस्वीकार कर देता है। कुंती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है और इसी के साथ नाटक के तृतीय अंक का समापन हो जाता है

सूत पुत्र नाटक के चतुर्थ अंक की कथावस्तु

डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक के चौथे एवं अंतिम अंक की कथा का प्रारंभ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि से होता है। सर्वाधिक रोचक एवं प्रेरणादायक इस अंक में नाटक के नायक करण की जान वीरता वीरता पराक्रम दृढ़ प्रतिज्ञा संकल्प जैसे गुणों का उद्घाटन होता है। अंक के प्रारंभ में एक और श्री कृष्ण एवं अर्जुन तो दूसरी और करण एवं शल्य है।

संध्या एवं करण में वाद विवाद होता है और शल्य करण को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित करता है। करण एवं अर्जुन के बीच युद्ध शुरू होता है। अतः कार्ड अपने बाणों से अर्जुन के रथ को पीछे धकेल देता है। श्री कृष्ण कर्ण की वीरता एवं योग्यता की प्रशंसा करते हैं जो अर्जुन को अच्छा नहीं लगता।

कड के रथ का पहिया दलदल में फंस जाता है। वह जब पैसा निकालने की कोशिश करता है तो श्री कृष्ण के संकेत पर अर्जुन ने हत्याकांड पर बाढ़ वर्षा प्रारंभ कर देते हैं जिससे करण मृमांतक रूप से घायल हो जाता है। और गिर पड़ता है। संध्या हो जाने पर युद्ध बंद हो जाता है।

सूत पुत्र नाटक के चतुर्थ अंक के अंत में श्री कृष्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए युद्ध भूमि में पड़े करण से सोना मांगते हैं करण अपना सोने का दांत तोड़ कर और उसे जल्द से शुद्ध कर ब्राह्मण वेशधारी श्री कृष्ण को देता है।

सूत पुत्र नाटक का उद्देश्य।

सूत पुत्र नाटक के नाटककार का उद्देश्य महाभारत कालीन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत कर के वर्तमान समय में भारतीय समाज की विसंगति की ओर पाठकों एवं दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना है। नाटककार ने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर नाटक में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुंदर समायोजन किया है जिसे निम्न बिंदुओं से निरूपित किया जा सकता है–

  1. जाति एवं वर्ग व्यवस्था संबंधी विसंगतियों को कर्ण परशुराम संवाद द्वारा दर्शाया गया है।
  2. जाति वर्ण व्यवस्था की विडंबना को करण द्रुपद संवाद द्वारा भी दर्शाया गया है।
  3. नारी की सामाजिक स्थिति को कर्ण कुंती संवाद से स्पष्ट किया गया है।
  4. उच्चारण की मंदाअंधता को कर्ण संवाद रेखांकित 

करता है।

 इस प्रकार प्रस्तुत सूत पुत्र नाटक के माध्यम से नाटककार ने समाज की कुरीतियों को अपने नाटक द्वारा रेखांकित किया है उन पर प्रतिघात किया है।

सूत पुत्र नाटक के आधार पर नायक का चरित्र चित्रण।

गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक के नायक कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं मौजूद है–

  1. गुरु भक्ति करण सच्चा गुरु भक्त वह अपने गुरु के लिए सर्वस्व त्याग करने को तत्पर है। अत्यधिक कष्ट होने के पश्चात भी वह अपने गुरु परशुराम की निद्रा को बाधित नहीं होने देता है। गुरुद्वारा साहब दिए जाने के बावजूद वह अपने गुरु की निंदा सुनना पसंद नहीं करता। द्रौपदी स्वयंवर के समय उसकी गुरु भक्ति स्पष्ट रूप से दिखती है।
  2. प्रवीण धनुर्धारी करण धनुर्विद्या में अत्यधिक प्रवीण है। वहां अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी है जिसके सामने अर्जुन को टिकना भी मुश्किल लगता है। इसलिए इंद्र देवता ने अर्जुन की रक्षा के लिए करण से ब्राह्मण वेश धारण कर कवच और कुंडल मांग लिए।
  3. प्रबल नैतिक वादी कर्ण उच्च स्तर के संस्कारों से युक्त है। वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्व देता है। इसी नैतिकता के कारण वह द्रोपदी के अपहरण संबंधी दुर्योधन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है।
  4. दानवीरता करण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ दानवीर था। उसकी दानवीरता अनुपम है। युद्ध में अर्जुन की विजय को सुनिश्चित करने के लिए इंद्र ने कवच कुंडल मांगा सारी वस्तुस्थिति समझते हुए भी करण ने उसका दान दे दिया। इतना ही नहीं युद्ध भूमि में मृत्यु शैया पर पड़े करण ने श्री कृष्ण द्वारा ब्राह्मण वेश में सोना दान में मांगने पर करने अपना सोने का दांत उखाड़ कर दे दिया।
  5. महान योद्धा एक महान योद्धा है तथा वह एक सच्चा महारथी है। वहां अर्जुन के रथ को अपनी बाण वर्षा से पीछे धकेल देता है जिस पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बैठे हुए थे।
  6. नारी के प्रति श्रद्धा भाव नारी जाति के प्रत्येक चरण में गहरी निष्ठा एवं श्रद्धा है। वह नारी को विधाता का वरदान मानता है।
  7. सच्चा मित्र करण अपने जीवन के अंत समय तक अपने मित्र दुर्योधन के प्रति गहरी निष्ठा रखता है। दुर्योधन के प्रति उसकी मित्रता को कोई भी व्यक्ति कम नहीं कर सका।

अंततः कहा जा सकता है कि करण का व्यक्तित्व अनेक श्रेष्ठ मानवीय भावों से परिपूर्ण है।

सूत पुत्र नाटक के आधार पर श्री कृष्ण का चरित्र चित्रण।

डॉक्टर गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक कर्ण के बाद सबसे प्रभावशाली एवं केंद्रीय चरित्र श्री कृष्ण का है।

जिन के व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–

सूत पुत्र नाटक
  1. महा ज्ञानी श्री कृष्ण एक ज्ञानी पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए हैं तथा युद्ध भूमि में अर्जुन के व्याकुल होने पर वे उन्हें जीवन का सार एवं रहस्य समझाते हैं। वह तो स्वयं भगवान के ही रूप है। अतः उनसे अधिक संसार के बारे में और किसी को क्या ज्ञान हो सकता है।
  2. कुशल राजनीतिज्ञ श्री कृष्ण का चरित्र एक ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसके कारण अर्जुन महाभारत के युद्ध में विजई बनाने में सक्षम हो सके। करण को इंद्र से प्राप्त अमोघ अस्त्र को श्री कृष्ण ने घटोत्कच पर चलवा कर अर्जुन की विजय सुनिश्चित कर दी।
  3. वीरता या उच्च कोटि के गुणों के प्रशंसक अर्जुन के पक्ष में शामिल होने के बावजूद श्री कृष्ण कर्ण की वीरता की प्रशंसा किए बिना रह नहीं सके। वे करण की धनुर्विद्या की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।
  4. कुशल वक्ता श्री कृष्ण एक कुशल एवं चतुर वक्ता के रूप में सामने आते हैं। श्रीकृष्ण अपनी कुशल बातों से अर्जुन को हर समय प्रोत्साहित करते रहते हैं तथा अंततः युद्ध में उन्हें विजई करवाते हैं।
  5. अवसर का लाभ उठाने वाले वस्तुतः श्री कृष्ण समय अवसर के महत्व को पहचानते हैं। आया हुआ अफसर फिर लौटकर नहीं आता और उनकी रणनीति आए हुए प्रत्येक अवसर को भरपूर लाभ उठाने की रही है। वे अवसर को चूकते नहीं है यही कारण है कि कारण पराजित हो जाता है और अर्जुन को विजय प्राप्त होती है।
  6. पश्चाताप की भावना श्री कृष्ण भगवान के स्वरूप होते हुए भी मानवीय भावनाएं रखते हैं इसलिए उनमें पश्चाताप की भावनाएं भी आती हैं। उन्हें इस बात का पश्चाताप है कि उन्होंने करण के साथ न्याय उचित व्यवहार नहीं किया। नियमितीकरण पर अर्जुन द्वारा बाढ़ वर्षा करा कर उन्होंने नैतिक रूप से उचित व्यवहार नहीं किया। उन्हें इस बात का गहरा पश्चाताप है लेकिन कूटनीति एवं रणनीति इसी व्यवहार को उचित ठहराती है। इस प्रकार श्री कृष्ण का चरित्र नाटक में कुछ समय के लिए ही सामने आता है लेकिन वह अत्यंत ही प्रभावशाली एवं सशक्त है जो पाठकों एवं दर्शकों पर गहरा प्रभाव डालता है।

सूत पुत्र नाटक के आधार पर कुंती का चरित्र चित्रण।

डॉ गंगा साहेब प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक की प्रमुख नारी पात्र कुंती है उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. तेजस्वी व्यक्तित्व प्रस्तुत नाटक के तीसरे अंक में कुंती के दर्शन होते हैं जब वह कर्ण के पास जाती है उस समय वह विधवा वेश में होती है। उसके बाल काले और लंबे हैं शरीर पर उसने सोयत साड़ी धारण कर रखी है वह अत्यंत सुंदर दिखाई देती है। उसका व्यक्तित्व भारतीय विधवा का पवित्र मनोहारी एवं तेजस्वी व्यक्तित्व है।
  2. मातृ भावना कुंती का हृदय मात्र भावना से परिपूर्ण है। जैसे ही वह युद्ध का निश्चय सुनती है वह अपने पुत्रों के लिए व्याकुल हो उठती है। उसने आज तक करण को पुत्र रूप में स्वीकार नहीं किया था किंतु फिर भी अपने मातृत्व के बल पर वह उसके पास जाती है और उसके सामने सत्य को स्वीकार करती है कि वह उसकी पहली संतान है जिसका उसने परित्याग कर दिया था।
  3. स्पष्टवादिता कुंती स्पष्ट वादी है। मां होकर भी वह कर के सामने उसके जन्म और अपनी भूल की कथा को स्पष्ट कह देती है। करण द्वारा यह पूछे जाने पर कि किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए तुमने सूर्यदेव से संपर्क स्थापित किया था। वह कहती है पुत्र तुम्हारी माता के मन में वासना का भाव बिल्कुल नहीं था।
  4. वाकपटु कुंती बातचीत में बहुत कुशल है। वह अपनी बात इतनी कुशलता से कहती है कि करण एक मां की व्यवस्था को समझकर तथा उसकी फूलों पर ध्यान न देकर उसकी बात मान लेता है। वह पहले कर्ण को पुत्र और बाद में कर कह कर अपने मन के भावों को प्रकट करती हैं।
  5. सूक्ष्म दृष्टि कुंती में प्रत्येक विषय को परखने और उसके अनुसार कार्य करने की सूक्ष्म दृष्टि थी। करण जब उससे कहता है कि तुम यह कैसे जानती हो कि मैं तुम्हारा वही पुत्र हूं जिसे तुम ने गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया था वह कहती है क्या तुम्हारे पैरों की उंगलियां मेरे पैर की उंगलियों से मिलती-जुलती नहीं है?
  6. कुशल नीतिज्ञ कुंती को राजनीति का सहज ज्ञान प्राप्त था। वह महाभारत युद्ध की समस्त राजनीति भली-भांति समझ रही थी। वह कार्ड को अपने पक्ष में करना चाहती है क्योंकि वह यह जानती है कि दुर्योधन की हटवा देता कार्ड के बल पर टिकी है और उसी के भरोसे वह पांडवों को नष्ट करना चाहता है। जब करण यह कहता है कि पांडव यदि सार्वजनिक रूप से मुझे अपना भाई स्वीकार करें तो उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य हो सकता है तो वह तत्काल कह देती है करण तुम्हारे पांचों भाई तुम्हें अपना अग्रस विकार करने को प्रस्तुत है यद्यपि पांचों पांडवों को तब तक यह पता भी नहीं था कि कर्ण उसके बड़े भाई हैं।

इस प्रकार नाटककार ने कुंती का चरित्र चित्रण अत्यंत कुशलता से किया है उन्होंने थोड़े ही विवरण में कुंती के चरित्र को कुशलता से दर्शाया है।

सूत पुत्र नाटक के आधार पर परशुराम का चरित्र चित्रण।

डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक में परशुराम को ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के मिले-जुले रूप वाले महान तेजस्वी और योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। परशुराम कर्ण के गुरु हैं। वह धनुर्विद्या के अद्वितीय ज्ञाता हैं। उन की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं–

  1. व्यक्तित्व परशुराम का व्यक्तित्व  शौर्य से परिपूर्ण है। नाटककार के शब्दों में परशुराम का व्यक्तित्व इस प्रकार है–परशुराम की अवस्था 200 वर्ष के लगभग है वह हष्ट पुष्ट शरीर वाले सुंदर व्यक्ति हैं चेहरे पर श्वेत लंबी घनी दाढ़ी और शीश पर लंबी-लंबी जटाएं  हैं।
  2. महान धनुर्धर परशुराम अद्वितीय धनुर्धर है एवं दूर-दूर से ब्राह्मण बालक उनके आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। भीष्म पितामह भी इनके शिष्य माने जाते हैं जो शिष्य परशुराम से शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें अद्वितीय योग्यता संपन्न माना जाता था।
  3. सच्चे ब्राह्मण परशुराम सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है तथा धन के लोभी ब्राह्मणों को वे नीच मानते हैं। उनके अनुसार विद्यादान ब्राह्मण का सर्व प्रमुख कार्य है। वह कहते हैं ब्राह्मण क्षत्रिय का गुरु हो सकता है सेवक अथवा व्यस्त होगी नहीं गुरुकुल लोभी और शिक्षा का व्यापारी कदापि नहीं होना चाहिए।
  4. अचूक पारखी परशुराम मानव स्वभाव के अचूक पारखी है तथा वे करण के व्यवहार से जान जाते हैं कि वह बालक ब्राह्मण न होकर छत्रिय पुत्र हैं। वे कहते हैं कि तुम क्षत्रिय हो कर्ण तुम्हारे माता-पिता दोनों ही छत्रिय रहे हैं।
  5. आदर्श शिक्षक आदर्श शिक्षक हैं एवं शिष्यों को पुत्र व स्नेह करते हैं। एक बार करंट की गंगा में एक किट काट लेता है जिससे रक्त की धारा प्रवाहित होने लगती है। इससे परशुराम रवि भूत होते हैं और तुरंत ही गांव पर नखरे चीनी का प्रयोग करते हैं करण को सांत्वना देते हैं। यह घटना परशुराम के सहृदय होने का प्रतीक है।
  6. उदार प्रवृत्ति परशुराम अत्यंत उदार हैं। वे वज्र के समान कठोर है लेकिन दूसरों की दयनीय दशा देखकर शीघ्र ही द्रवित भी हो जाते हैं। करण ब्राह्मण का छद्म वेश धारण करके उनसे शिक्षा ग्रहण करने आता है इस सत्य का पता चलने पर वह उसे श्राप दे देते हैं लेकिन जब उसकी दयनीय और सोचनीय दशा को देखते हैं तो उसके प्रति सहृदय हो जाते हैं।

इस प्रकार परशुराम तेजस्वी ब्राह्मण होने के साथ-साथ आदर्श शिक्षक भी है उदार हृदय वाले भी हैं। वे बाल ब्रह्मचारी हैं तथा निस्वार्थ भाव से शिक्षा का दान करने वाले हैं। ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के सभी गुण उनमें विद्यमान हैं।

इस प्रकार से सूत पुत्र नाटक की कहानी समाप्त हो जाती है।

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