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हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आपको आज हम उपलब्ध कराने वाले है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास बहुत ही समृद्ध शैली का है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास के बारे में बहुत सरे रोचक तथ्य अभी आपके सामने आयने वाले है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी गद्य का प्रवर्तक माना जाता है। इनसे पहले गद्य साहित्य की व्यवस्थित परंपरा नहीं मिलती है। हिंदी भाषा एवं साहित्य दोनों पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव बहुत गहरा पड़ा। इनसे पहले मुंशी सदा सुख लाल की भाषा पंडिता ओपन लिए हुई थी। जबकि लल्लू लाल व सदल मिश्र की भाषा में क्रमशः ब्रज भाषा व पूर्वी भाषा का प्रभाव था राजा से प्रसाद का उर्दू 1 शब्दों से आगे बढ़कर वाक्य विन्यास में भी समाया हुआ था गद्य का निकला हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ।
मुद्रण यंत्र के चैनल शिक्षण संस्थाओं की स्थापना धार्मिक सामाजिक एवं बौद्धिक आंदोलनों के उत्थान पत्र-पत्रिकाओं के प्रसार आदि के कारण जीवन में जैसे-जैसे यांत्रिक एवं चिंतन की प्रतिष्ठा हुई वैसे वैसे गद्य साहित्य का भी विकास होता गया। आधुनिक काल में गद्य के विकास की अधिकता को देखते हुए इसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गद्य काल की संज्ञा दी है। गंदे का संबंध व्यवहारिक जीवन से अधिक होता है व्यवहारिक जीवन का बुद्धि से और बुद्धि का विचारों से घनिष्ठ संबंध होने के कारण गद्य का संबंध व्यवहारिकता बौद्धिकता एवं वैचारिकता से अधिक जोड़ता है।
भाषा की दृष्टि से आधुनिक काल से पूर्व के हिंदी गद्य को चार भागों में विभाजित किया गया है
( 1 ) राजस्थानी गद्य
हिंदी गद्य का प्राचीनतम रूप राजस्थानी गण 10 वीं सदी के आसपास का गद्य है इसकी प्राचीनतम उपलब्ध रचनाएं जैसे आराधना अति विचार बाल शिक्षा मुनि जैन विजय द्वारा संपादित प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ में संग्रहित है।
( 2 ) मैथिली गद्य
प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ वर्ण रत्नाकर जो त्रिशा द्वारा रचित विद्यापति – कीर्ति लता जो की राजा कीर्ति सिंह का बखान है। और कीर्ति पताका जो की महाराजा शिवसिंह का बखान है।
( 3 ) ब्रजभाषा गद्य
प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ गोरखनाथ कृत गोरखसार । गोस्वामी विट्ठलनाथ द्वारा रचित ग्रंथ श्रंगार रस मंडल यमुनाष्टक नवरत्न सटीक आदि है। स्वामी गोकुलनाथ द्वारा रचित चौरासी वैष्णव की वार्ता 252 वैष्णव की वार्ता आदि।
( 4 ) खड़ी बोली के प्रारंभिक गद्य।
दक्खिनी के गद्य – खड़ी बोली का विकास मुख्यतः ब्रजभाषा एवं राजस्थानी गद्य से हुआ है। कुछ लोग इसे दक्षिणी एवं अवधि गद्य का मिश्रित रूप भी मानते हैं। दक्षिणी गद्दे की पहली रचना मिराजुल आशिकी ख्वाजा बंदा नवाज गेसूदराज ने 1346 से 1423 ईस्वी में लिखी थी जो दक्षिणी हिंदी के प्रथम गद्य लेखक भी थे।
उत्तरी भारत में खड़ी बोली के गद्य प्राची प्रथम गद्य रचना चंद चंद वर्णन की महिमा 1570 इसी में कवि गंग द्वारा रचित ब्रिज मिश्रित खड़ी बोली की रचना थी गोरा बादल की कथा 1623 ईस्वी में जटमल द्वारा रचित की गई तथा भाषा योग वशिष्ठ 1741 ईस्वी में खड़ी बोली गद्य की सर्वाधिक मान्य एवं व्यवस्थित भाषा में रचित प्रथम पुस्तक थी इसके अलावा रामप्रसाद निरंजनी द्वारा रचित पदम पुराण 1761 में पंडित दौलतराम द्वारा रचित की गई।
रचनाएँ | रचनाकार |
वैशाख माहात्म्य | बैकुण्ठमणि शुक्ल |
अष्टयाम | नाभादास |
बनारसीदास विलास | बनारसीदास |
भक्तमाल प्रसंग | वैष्णवदास |
रानी केतकी की कहानी | इंसा अल्ला खां |
सुखसागर | मुंशी सदासुख लाल |
प्रेमसागर | लल्लूलाल |
माधव विलास | लल्लूलाल |
नासिकेतोपाख्यान | सदल मिश्र |
भाग्यवती | श्रद्धाराम फुल्लौरी |
योगवाशिष्ठ के चुने हुए श्लोक | राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द |
उपनिषद सार राजा शिवप्रसाद | सितारेहिन्द |
वामा मनोरंजन राजा शिवप्रसाद | सितारेहिन्द |
आलसियों का कोड़ा | राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द |
विद्यांकुर | राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द |
राजा भोज का सपना | राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द |
इतिहास तिमिर नाशक | राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द |
बेताल पचि सी | सुरति मिश्र |
संयोगिता स्वयंवर | लाला श्री निवास दास |
शिकारनामा | गेसूदराज बन्दनवाज |
निसहाय हिन्दू | राधाकृष्ण दास |
ए डिक्सनरी ऑफ़ इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी | गिलक्राइस्ट |
ए ग्रामर ऑफ़ द हिंदुस्तानी | गिलक्राइस्ट लेंग्वेज |
हिंदी गद्य संबंधी कुछ महत्वपूर्ण तथ्य नीचे दर्शाए गए हैं जो आपका मार्गदर्शन हिंदी गद्य के नजरिए से उचित ढंग से कर पाएंगे इन्हें आप ध्यान पूर्वक देखें।
आचार्य | भाषा शैली |
मुंशी सदासुख लाल | सहज एवं प्रवाहमयी भाषा |
इंशा अल्ला खां | अलंकृत, चुटीली एवं मुहावरेदार भाषा |
लल्लूलाल जी | ब्रजभाषा के साथ उर्दू का प्रयोग |
सदल मिश्र | पूरबीपन बहुल भाषा |
काल का नाम | काल का समय काल |
पूर्व भारतेन्दु युग | 13 वीं शताब्दी से 1850 ई. तक |
भारतेन्दु युग | 1850 से 1900 ई. तक |
द्विवेदी युग | 1900 से 1918 ई. तक |
छायावादी युग | 1918 से 1938 ई. तक |
छायावादोत्तर युग | 1938 ई. से अब तक |
भारतेंदु युगीन गद्य से हिंदी गद्य का विकास माना जाता है। इसी युग में भारतेंदु मंडल ने हिंदी गद्य की विधाओं में निबंध नाटक उपन्यास आदि की रचना की।
प्रथम रचना | रचना | रचनाकार |
हिंदी का प्रथम नाटक | नहुष | गोपालचंद्र गिरिधरदास |
हिंदी का प्रथम उपन्यास | परीक्षा गुरु | लाला श्रीनिवास दास |
हिंदी का प्रथम कहानी | इन्दुमती | किशोरीलाल गोश्वामी |
हिंदी का प्रथम यात्रा वृतान्त | सरयू पार की यात्रा | भारतेन्दु हरिश्चंद्र |
संस्थाए | स्थापना वर्ष | संस्थापक |
ब्रह्म समाज | 1829 ई. | राजा राममोहन राय |
रामकृष्ण मिशन | 1867 ई. | स्वामी विवेकानंद |
प्रार्थना समाज | 1867 ई. | महादेव गोविन्द रानाडे |
आर्य समाज | 1867 ई. | स्वामी दयानन्द सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी | 1882 ई. | एनी बेसेण्ट |
लेखक | नाटक |
भारतेन्दु हरिचन्द्र | वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषष्य विषमोषधम, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, सती प्रताप आदि |
प्रतापनारायण मिश्र | गौ संकट, कलिप्रभाव, भारत-दुर्दशा |
बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन | भारत सौभाग्य, प्रयाग रमागमन |
प. बालकृष्ण भटट | कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बाल विवाह |
राधाचरण गोस्वामी | अमर सिंह राठौर, बूढ़े मुँह मुहासे |
राधाकृष्ण दास | दुःखिनी बाला, महाराणा प्रताप |
किशोरी लाल गोस्वामी | प्रणयिनी परिणय, मयंक मंजरी |
लाला श्रीनिवास दास | रणधीर, प्रेम मोहिनी, सयोंगिता स्वयंवर |
लेखक | पत्र एवं पत्रिकाएं |
भारतेन्दु | हरिचन्द्र मैग्जीन, हरिचन्द्र चन्द्रिका, बालाबोधिनी |
बालकृष्ण भटट | हिन्दी-प्रदीप |
प्रतापनारायण मिश्र | ब्राह्मण |
कार्तिक प्रसाद खत्री | हिन्दी दीप्ति प्रकाश |
बद्रीनारायण चौधरी | आनन्द कादम्बिनी |
नीचे दिए गए तथा द्वारा आपको द्विवेदी युगीन गद्य के बारे में समझाया गया है इन तथ्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ें।
नाटककार | नाटक |
राधाचरण गोस्वामी | श्रीदामा ( पौराणिक ) |
शिवनन्दन सहाय | सुदामा ( पौराणिक ) |
ब्रजनन्दन सहाय | उद्धव ( पौराणिक ) |
गंगा प्रसाद | रामभिषेक ( पौराणिक ) |
गंगा प्रसाद गुप्त | वीय जयमल ( ऐतिहासिक ) |
वृंदावनलाल वर्मा | सेनापति ऊदल ( ऐतिहासिक ) |
भगवती प्रसाद | वृद्ध विवाह ( सामयिक ) |
लाला सीताराम | मृछीकटिकम ( अनुदित ) |
सदानन्द अवस्थी | नागानन्द ( अनुदित ) |
उपन्यासकार | उपन्यास का नाम |
देवकीनन्दन खत्री | चन्द्रकान्ता।, चन्द्रकान्ता सन्तति , भूतनाथ अनूठी बेगम |
किशोरीलाल गोस्वामी | तारा , रजिया बेगम |
गोपालदास गहमरी | सरकटी लाश , जासूस की भूल |
लज्जाराम शर्मा | आदर्श दम्पति , आदर्श हिन्दू |
अयोद्धा सिंह उपाधया ,हरिओध।, | अधलिखा फूल , ठेठ हिंदी का ठाठ |
कहानीकार | कहानी |
किशोरीलाल गोस्वामी | इन्दुमती |
लाला भगवदीन | प्लेग की चुड़ैल |
रामचन्द्र शुकल | ग्यारहवर्ष का समय |
बंगमहिला | दुलाईवली |
चंद्रधर शर्मा गुलेरी | उसने कहा था |
जीवन चरित्र | लेखक |
माधवप्रसाद मिश्र | ‘विशुध्द चरितावली ‘ |
बाबू शिवनन्दन सहाय | ‘हरिशचंद्र का जीवन परिचय ‘ |
शिवनन्दन सहाय | ‘गोस्वामी ‘ तुलसीदास का जीवन चरित्र |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल | बाबू राधाकृष्ण दास |
छायावाद युगीन गद्य में हिंदी साहित्य की विविध गद्य विधाओं की रचना अपनी चरम सीमा पर थी जिसका विवरण निम्नलिखित है।
नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद के रूप में एक युगांतर उपस्थित हुआ जिनके नेतृत्व में अनेक रचनाएं सामने आई जैसे कल्याणी ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त स्कंदगुप्त। उसके बाद हरि कृष्ण प्रेमी की रचनाएं सामने आती है जैसे स्वर्ण विहीन रक्षाबंधन प्रतिशोध। उसके बाद लक्ष्मी नारायण मिश्र की कुछ रचनाएं सामने आती है जैसे सन्यासी और मुक्ति का रहस्य। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद के उपन्यास सम्राट माना जाता है इनकी प्रमुख रचनाओं में सेवा सदन रंगभूमि कर्मभूमि निर्मला कायाकल्प भवन गोदान आदि शामिल है। प्रेमचंद के अलावा विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक आचार्य चतुरसेन शास्त्री शिवपूजन सहाय पांडेय बेचन शर्मा उग्र भगवती चरण वर्मा आदि उल्लेखनीय उपन्यासकार है।
निबंध के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का महत्वपूर्ण स्थान है इनकी रचनाएं हैं भाव्या मनोविकार घृणा क्रोध साधार करण और व्यक्तिगत चित्रवाद एवं काव्य में रहस्यवाद इत्यादि। इनके सभी निबंध चिंतामणि निबंध संग्रह में संकलित हैं इनके अतिरिक्त शिवपूजन सहाय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पांडेय बेचन शर्मा उग्र वियोगी हरि श्रीराम शर्मा गुलाब राय संपूर्णानंद उल्लेखनीय निबंधकार है।
हिंदी गद्य की सर्वाधिक उन्नति का युग माना जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
लेखक | विशेषतएं |
आचार्य हजारीप्रदास दुवेदी | पाण्डित्य एंव चिन्तन केसाथ सहजता एंव सरसता का समन्वय |
शान्तिप्रिय दुवेदी | प्रभावगररहिणी प्रज्ञा और भावोच्छवासि शैली |
रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ | विचारशीलता , विषय -वैविध्य एंव व्यक्तितत्व -व्यंजन |
भगवतीचरण वर्मा | सहज ,व्यावहारिक , प्रवाहपूर्ण एंव व्यंजकभृत |
जैनेन्द्र कुमार | दार्शिनक मुद्रा एंव मनोवैज्ञानिक निगूढ़ता |
अज्ञेय | बौद्धौकता |
डॉ. नागेन्द्र | तर्क प्रधान , विश्लेषणपरक एंव आत्मविशवास |
रामवृक्ष बेनीपुरी | शव्द चित्रों के लिए प्रिशिद्ध |
बनारसीदास चतुर्वेदी | संस्मरण ,जीवनियों एंव रेखाचित्र |
वासुदेवशरण मिश्र | सांस्कृतिक एंव आध्यातिमिक गरिमा |
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर | राजनितिक संस्मरण एंव रिपोर्ताज |
विधानिवासी मिश्र | ऐतिहासिक घटनाओं का भावपूर्ण नाटकीय शैली में प्रस्तुतीकरण |
हरिशंकर परसाई | वैज्ञानिक दृस्टि , सांस्कृतिक चेतना , लोक -साम्प्रतिक एवं आधुनिक जीवन -बोध |
फणीश्वरनाथ रेणु | ध्वनि -बिंबो का सक्षम प्रयोग |
धर्मवीर भारती | गम्भीर एंव विचारपूर्ण गध |
शिवप्रसाद सिंह | आंचलिकता या लोकचेतना से सम्पृक्त व्यापक मानवीय चेतना का वाहक |
गद्दे की विभिन्न प्रमुख विधाओं में निबंध नाटक एकांकी आलोचना उपन्यास कहानी यात्रा वृतांत आत्मकथा जीवनी रिपोर्ताज रेखाचित्र संस्मरण आदि शामिल है।
नाटक शब्द की व्युत्पत्ति नट धातु से हुई है जिसका अर्थ सात्विक भावों का प्रदर्शन है नट यानी अभिनय करने वाला से अभिनीत होने के कारण भी यह नाटक कहलाता है। नाटक एक दृश्य काव्य है जिसमें श्रव्य काव्य होने के गुण भी विद्यमान है। जिस नाटक में व्यंग तथा सुरुचिपूर्ण हास्य का पुट देकर सामाजिक धार्मिक एवं राजनीतिक समस्याओं का उद्घाटन किया जाता है वह प्रशासन या रचनात्मक नाटक है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
नाटककार | नाटक |
भारतेन्दु हरिचन्द्र | विधा सुन्दर , चन्द्रावली चरित्र |
श्रीनिवासदास | तप्त संवरण , प्रहाद चरित्र |
अयोध्या सिंह उपाध्या | प्रधुमन विजय |
सीताराम वर्मा | अभिमन्यु वध |
काशीनाथ खत्री | विधवा विवाह |
राजा लक्ष्मण सिंह | शकुन्तला (अनुदित ) |
नाटककार | नाटक |
कृष्ण पप्रकाश सिंह | पनना |
बद्रीनाथ भट्रट | चन्द्रगुप्त |
हरिदास मनिका | सयोगीता हरण |
जीवानन्द शर्मा | भारत विजय |
बनवारीलाल | कृष्ण कथा , कंस वध |
माखन लाल चतुर्वेदी | कृष्णार्जुन -युद्ध |
रामगुलाम लाल | धनुष यज्ञ लीला |
नाटककार | नाटक |
जयशंकर प्रसाद | सज्जन ,विशाख ,अजातशत्रु |
हरिशंकर प्रेमी | रक्षाबंधन ,पाताल विजय ,प्रितरोध |
प्रेमचंद | कबरला ,संग्राम |
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र ‘ | महात्मा ईसा , चुंबन।,डिक्टेटर |
रामवृक्ष बेनीपुरी | अंबपाली |
सुर्दशन | अंजना |
विष्वंभर नाथ शर्मा ‘कौशिक ‘ | हिन्दू विधवा नाटक |
उदय शंकर भटटा | कमला |
रामनरेश त्रिपाठी | सुभद्रा |
मैथलीशरण गुप्त | तिलोत्तमा |
लक्ष्मीनारायण मिश्र | अशोक ,राजयोग ,सिंदूर की होली , अधिरत |
विष्णु प्रभारकर | युगे युगे क्रान्ति |
नाटककार | नाटक |
उदयशंकर भटटा | राधा ,अश्व्थामा ,असुर ,सुंददरी ,की होली ,डिक्टेटर |
पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र ‘ | गंगा का बेटा |
हरिकृष्ण प्रेमी | आहुति , |
वृंदावन लाल वर्मा | |
गोविन्द वल्ल्भ पंत | |
सेठ गोविन्द दास |
नाटककार | नाटक |
मोहन राकेश | आधे अधूरे, शायद, आषाढ़ का एक दिन |
भीष्म साहनी | हानूश, माधवी, आलमगीर, रंग दे बसंती चोला |
जगदीश चन्द्रमाथुर | कोणार्क, पहला राजा, दशरथनन्दन |
लक्ष्मीनारायण लाल | दर्पण, सुर्यमुख, गुरु, कजरीवन, गंगामाटी |
नाटक का ही एक स्वरूप जिसमें केवल एक ही अंत में संपूर्ण नाटक समाप्त हो जाता है उसे एकांकी कहते हैं। एकांकी के प्रचलित प्रमुख वेद एवं उपभेद निरूपक संगीत रूपक रेडियो प्रसन्न स्वागत नाटय आदि। भारतेंदु की एकांकी जैसी प्रमुख रचनाएं विषस्य विषमौषधम् धनंजय विजय अंधेर नगरी वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति भारत दुर्दशा। जयशंकर प्रसाद का एक घूंट सर्वमान्य रूप से हिंदी का प्रथम एकांकी माना जाता है। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
डॉ रामकुमार वर्मा ने कहा कि नाटकों का प्रथम संग्रह पृथ्वीराज की आंखें वर्ष 1936 में लिखी। अन्य लेखकों में भुवनेश्वर प्रसाद सेठ गोविंद दास उदय शंकर भट्ट जगदीश चंद्र माथुर उपेंद्र नाथ अश्क विष्णु प्रभाकर गणेश प्रसाद द्विवेदी भगवती चरण वर्मा आदि लेखकों का एकांकी लेखन में उल्लेखनीय योगदान है।
उपन्यास अर्थात सामने रखना इसमें प्रसाधन का भाव भी नित है अर्थात किसी घटना को इस प्रकार सामने रखना जिससे दूसरों को प्रसन्नता हो।
उपन्यास | उपन्यासकार |
नूतन ब्रह्मचारी | बालकृष्ण भटट |
लवंगलता, कनक कुसुम, प्रणयनी परिणय | किशोरीलाल गोस्वामी |
चंद्रकांता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ | देवकीनंदन खत्री |
अदभुत लाश, गुप्तचर | गोपालराम गहमरी |
राधाकान्त, सौन्दर्योपासक | ब्रजनन्दन सहाय |
उपन्यास | उपन्यासकार |
सेवा सदन, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गोदान | प्रेमचन्द |
कंकाल, तितली, इरावती | जयशंकर प्रसाद |
माँ, भिखारिणी, संघर्ष | विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक |
देहाती दुनिया | शिवपूजन सहाय |
दिल्ली का दलाल, शराबी | पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र |
चन्द हसीनों के खतूत | आचार्य चतुरसेन शास्त्री |
आत्मदाह, व्यभिचार, हृदय की परख | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला |
अप्सरा, अलका, निरुपमा, प्रभावती प्रेमपथ, अनाथ पत्नी, मुस्कान | भगवती प्रसाद वाजपेयी |
उपन्यास | उपन्यासकार |
परख, सुनीता, त्यागपत्र | जैनेन्द्र |
जहाज का पंछी, घ्रणापथ | इलाचन्द्र जोशी |
शेखर : एक जीवनी, नदी के द्वीप | अज्ञेय |
ढलती रात, स्वप्नमयी, कोई तो, संकल्प | विष्णु प्रभाकर |
पतन, तीन वर्ष, रेखा गोसाईं | भगवतीचरण वर्मा |
मधुर स्वप्न, जय योधेय, जीने के लिए | राहुल सांकृत्यायन |
महाकाल, करवट, पीढ़ियाँ | अमृतलाल नागर |
बाणभटट की आत्मकथा, पुनर्नवा | आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी |
जुलूष, दीर्घतय, मैला आँचल | फणीश्वरनाथ रेणु |
तमस, बसंती, माड़ी, कुन्तो | भीष्म साहनी |
कहानी का उद्देश्य एक क्षण में घनीभूत जीवन दृश्य का अंकन अर्थात जीवन का खंड चित्र प्रस्तुत करना होता है। कहानीकार का मर्म जीवन के किसी मार्मिक क्षण में सम्मिलित होकर उसे कलात्मक एवं रोचक ढंग से रूपाय करना। हिंदी की प्रथम आधुनिक कहानी इंदुमती किशोरी लाल गोस्वामी द्वारा रचित है। हिंदी कहानी अर्थात एक नई दिशा की ओर मुड़ी वर्ष 1935 से हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
कहानी | कहानीकार |
दुलाईवाली | बंगमहिला |
ग्यारह वर्ष का समय | रामचन्द्र शुक्ल |
उसने कहा था | प. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी |
अंग्रेजी के ‘ ऐसे ‘ शब्द का पर्याय निबन्ध है जिसका अर्थ है ‘ प्रयास ‘ अर्थात किसी भी विषय के सन्दर्भ में कुछ कहने का प्रयास करना। सामान्यतः निबन्ध का अर्थ है बन्धन में बंधी हुई कोई वस्तु। इसके चार प्रकार होते हैं – वर्णात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक एवं भावात्मक।
इसके उत्कृष्ट निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हुए हैं इनके निबन्ध-संग्रह का नाम चिन्तामणि। अन्य प्रसिद्ध निबंधकार – बाबु गुलाबराय (ठलुआ क्लब ), चतुरसेन शास्त्री (अंतस्थल ), पदुमलाल पुन्नालाल (पंच पात्र )
आलोचना का अभिप्राय – किसी पदार्थ, तथ्य, वास्तु की परख सही रूप में करना या किसी वस्तू को भली प्रकार देखना। आलोचना प्रक्रिया के प्रमुख क्षेत्र – सिद्धांत निरूपण एवं व्याख्या। आलोचना के दो भेद – सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक आलोचना। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
महावीरप्रसाद द्विवेदी | कालिदास की निरंकुशता |
मिश्र बन्धु | हिन्दी नवरत्न |
पदमसिंह शर्मा | बिहारी सतसई की भूमिका |
श्यामसुन्दर दास | साहित्यालोचन, रूपक रहस्य |
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी | विश्व साहित्य |
रामचन्द्र शुक्ला | हिन्दी साहित्य का इतिहास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका, गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास |
हिन्दी के आत्मकथा साहित्य में प्रथम आत्मकथा – जैन कवि बनारसीदास की अर्द्धकथा
साहित्यकार | साहित्य |
भारतेन्दु | कुछ आप बीती, कुछ जग बीती |
अम्बिकादत्त व्यास | निज वृतांत |
स्वामी श्रद्धानन्द | कल्याण का पथिक |
स्वामी सत्यानन्द अग्निहोत्री | मुझमें देव जीवन का विकाश |
भाई परमानन्द | आप बीती |
सुभाषचन्द्र बोस | तरुण स्वप्न |
जवाहरलाल नेहरू | मेरी कहानी |
राधाकृष्ण | सत्य की खोज |
के.एम. मुंशी | आधे रास्ते और सीधी चटटान |
डॉ. राजेंद्र प्रसाद | मेरी आत्मकथा |
स्वामी भवानीदयाल | सन्यासी प्रवासी की आत्मकथा |
सत्यदेव परिव्राजक | स्वतंत्रता की खोज |
बाबू श्यामसुन्दर दास | मेरी कहानी |
राहुल सांकृत्यायन | मेरी जीवन यात्रा |
वियोगी हरि | मेरा जीवन प्रवाह |
बाबू गुलाब राय | मेरी असफलताएँ |
सुमित्रानन्दन पन्त | साठ वर्ष : एक रेखांकन |
शांतिप्रिय द्विवेदी | परिव्राजक की प्रजा |
यशपाल | सिंहावलोकन |
डॉ. हरिवंशराय बच्चन | क्या भूलूँ क्या याद करुँ, नींद का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दासद्वार से सोपान तक |
इतिहास जैसी प्रमाणिकता एवं तथ्यपूर्णता के साथ-साथ साहित्यकता के तत्वों से परिपूर्ण। राष्ट्रीय महापुरुषों की जीवनियाँ अपेक्षाकृत कम लिखी गई।
कलम का सिपाही ( प्रेमचन्द की जीवनी ) | अमृतराय |
कलम का मजदूर ( प्रेमचन्द की जीवनी ) | मदन गोपाल |
निराला की साहित्य साधना ( निराला की जीवनी ) | डॉ. रामविलास शर्मा |
सुमित्रानन्दन पन्त : जीवन और साहित्य | शांति जोशी |
आवारा मसीहा ( शरत चन्द्र की जीवनी ) | विष्णु प्रभाकर |
चैतन्य महाप्रभु | अमृतलाल नागर |
संस्मरण= सम + स्मरण अर्थात सम्यक स्मरण। बाबूबालमुकुन्द गुप्त ने वर्ष 1907 में प. प्रतापनारायण मिश्र संश्मरण लिखकर इस विधा का सूत्रपात किया
किसी घटना का यथा तथ्य साध्य वर्णन रिपोर्ताज कहलाता है लेखक का घटना से प्रथम साक्षात्कार आवश्यक होता है। हिंदी में इस विधा का सूत्रपात बंगाल के भयानक अकाल वर्ष 1943 में डॉ रंगे राघव द्वारा तूफानों के बीच से हुआ। हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास एवं विकास
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प्रसिद्ध नाटककार पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की कथावस्तु शुंग वंश के शासक सेनापति विक्रम मित्र के शासनकाल और उनके महान व्यक्तित्व पर आधारित है। गरुड़ध्वज मैं आज योग्य प्राचीन भारत के एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वरूप को उजागर करने का प्रयास किया गया है। इसमें धार्मिक संकीर्णता एवं स्वार्थों के कारण विघटित होने वाले देश की एकता एवं नैतिक पतन की ओर नाटककार ने ध्यान आकृष्ट किया है। यह नाटक राष्ट्र की एकता और संस्कृति की गरिमा को बनाए रखने का संदेश देता है।
गरुड़ध्वज नाटक में इसमें आश्चर्य विक्रम मित्र कुमार विषम सील कालिदास वासंती मलावती आधे चित्रों के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता राष्ट्रप्रेम राष्ट्रीय एकता नारी स्वाभिमान जैसे गुणों को प्रस्तुत कर समाज में इनके विकास की प्रेरणा दी गई। पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक गरुड़ध्वज ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के सुंग वंश के अंतिम सेनापति विक्रम मित्र के काल से संबंधित होने के कारण ऐतिहासिक है। इसमें तत्कालीन समाज में व्याप्त पाखंड विदेशियों के अत्याचार तथा धर्म एवं अहिंसा के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों के षड्यंत्र का चित्रण किया गया है। इस नाटक में 3 अंक हैं।
पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के प्रथम अंक की कहानी का प्रारंभ विदिशा में कुछ प्रहरियों के वार्तालाप से होता है। पुष्कर नामक सैनिक सेनापति विक्रम मित्र को महाराज शब्द से संबोधित करता है तब नाग से उसकी भूल की ओर संकेत करता है। वस्तुतः विक्रम मित्र स्वयं को सेनापति के रूप में ही देखते हैं और शासन का प्रबंध करते हैं। विदिशा सुंगवंशीय विक्रम मित्र की राजधानी है जिसके वह योग्य शासक हैं।
उन्होंने अपने साम्राज्य में सर्वत्र सुख शांति स्थापित की हुई है और बृहद्रथ को मार कर तथा गरुड़ध्वज की शपथ लेकर राज्य का कार्य संभाला है। काशीराज की पुत्री वासंती महाराज की पुत्री मलावती को बताती है कि उसके पिता उसे किसी वृद्ध यवन को सौंपना चाहते थे तब सेनापति विक्रम मित्र ने ही उसका उद्धार किया था। वासंती एक मोर नामक युवक से प्रेम करती थी और वह आत्महत्या करना चाहती थी लेकिन विक्रम मित्र की सतर्कता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पाती।
गरुड़ध्वज नाटक में श्रेष्ठ कवि एवं योद्धा कालिदास विक्रम मित्र को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा के कारण भीष्म पितामह कहकर संबोधन करते हैं और इस प्रसंग में एक कथा सुनाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था हो जाने के कारण विक्रममित्र मित्र वृद्ध हो गए हैं। वे वासंती और एक मोर को महल में भेज देते हैं। मलावती के कहने पर पुष्कर को इस शर्त पर क्षमादान मिल जाता है कि उसे राज्य की ओर से युद्ध लड़ना होगा।
उसी समय साकेत से एक यवन श्रेष्ठ की कन्या कौमुदी का सेनानी देवहूति द्वारा अपहरण किए जाने तथा उसे लेकर काशी चले जाने की सूचना मिलती है। सेनापति विक्रम मित्र कालिदास को काशी पर आक्रमण करने के लिए भेजते हैं और यहीं पर प्रथम अंक समाप्त हो जाता है।
गरुड़ध्वज नाटक का द्वितीय अंक राष्ट्रहित में धर्म स्थापना के संघर्ष का इसमें विक्रम मित्र की दृढ़ता एवं वीरता का परिचय मिलता है। साथ ही उनके कौशल नीतिज्ञ एवं एक अच्छे मनुष्य होने का भी बोध होता है। इसमें मांधाता सेनापति विक्रम मित्र को अंतालिक के मंत्री हलोधर के आगमन की सूचना देता है। कुरु प्रदेश के पश्चिम में तक्षशिला राजधानी वाला यवन प्रदेश का शासक सुंग वंश से भयभीत रहता है।
उसका मंत्री हेलो धर भारतीय संस्कृति में आस्था रखता है वह राज्य की सीमा को वार्ता द्वारा सुरक्षित करना चाहता है। विक्रम मित्र देव मूर्ति को पकड़ने के लिए कालिदास को काफी भेजने के बाद बताते हैं कि कालिदास का वास्तविक नाम वीरेंद्र है जो 10 वर्ष की आयु में ही बौद्ध भिक्षु बन गया था। उन्होंने उसे विदिशा के महल में रखा और उसका नया नाम कालिदास रख दिया।
गरुड़ध्वज नाटक में काशी का घेरा डालकर कालिदास का सिराज के दरबार में बहुत आचार्यों को अपनी वैधता से प्रभावित कर लेते हैं तथा देव भूत एवं काशीराज को बंदी बनाकर विदिशा ले आते हैं। विक्रम मित्र एवं हेलो धर के बीच शांति वार्ता होती है जिसमें हेलो धर विक्रम मित्र की सारी शर्तें स्वीकार कर लेता है तथा अंतलिक द्वारा भेजी गई भेंट विक्रम मित्र को देता है।
भेंट में स्वर्ण निर्मित एवं रत्न जड़ित गरुड़ध्वज भी है। वह विदिशा में एक शांति स्तंभ का निर्माण करवाता है। इसी समय कालिदास के आगमन पर वासंती उसका स्वागत करती है तथा पीड़ा पर पड़ी पुष्पमाला कालिदास की गले में डाल देती है। इसी समय द्वितीय अंक का समापन हो जाता है।
गरुड़ध्वज नाटक के तृतीय अंक की कथा अवंती में घटित होती है। गर्धभिल्ल के वंशज महेंद्रादित्य के पुत्र कुमार विषम सील के नेतृत्व में अनेक वीरों ने शकों के हाथों से मालवा को मुक्त कराया। अवंती में महाकाल के मंदिर पर गरुड़ध्वज शहर आ रहा है तथा मंदिर का पुजारी वासंती एवं मलावती को बताता है कि युद्ध की सभी योजनाएं इसी मंदिर में बनी है। गरुड़ध्वज नाटक में राजमाता से विषम सील के लिए चिंतित ना होने को कहा जाता है क्योंकि सेना का संचालन स्वयं कालिदास एवं मांधाता कर रहे हैं।
काशीराज अपनी पुत्री वासंती का विवाह कालिदास से करना चाहते हैं जिसे विक्रम मित्र स्वीकार कर लेते हैं। विषम सील का राज्य अभिषेक किया जाता है और कालिदास को मंत्री पद सौंपा जाता है। राजमाता जैन आचार्यों को क्षमा दान देती हैं। और जैन आचार्य अवंति का पुनर्निर्माण करते हैं।
कालिदास की मंत्रणा से विषम सील का नाम आचार्य विक्रम मित्र के नाम से पूर्व अंश विक्रम तथा पिता महेंद्र आदित्य के बाद के अंश आदित्य को मिलाकर विक्रमादित्य रखा जाता है। गरुड़ध्वज नाटक में विक्रम मित्र काशी एवं विदिशा राज्यों का भार भी विक्रमादित्य को सौंपकर स्वयं सन्यासी बन जाते हैं। कालिदास अपने स्वामी विक्रमादित्य के नाम पर उसी दिन से विक्रम संवत का प्रवर्तन करते हैं नाटक की कथा यहीं पर समाप्त हो जाती है।
गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में कालिदास एक प्रमुख पात्र है यह बात सर्वविदित है कि कालिदास जैसा उच्च कोटि का नाटक का कोई दूसरा नहीं है वह इस नाटक में एक पात्र के रूप में उपस्थित है किंतु एक नवीन रूप में उसकी चारित्रिक विशेषताएं इस प्रकार हैं–
इस प्रकार कहां जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में कालिदास विलक्षण पुरुष है। वीर वीर सच्चे मित्र सच्चे प्रेमी और महाकवि हैं। वे शासक भी हैं और शासित भी हैं। वीर वीर न्याय प्रिय तो कठोर और कोमल भी है।
ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक के नायक तेजस्वी व्यक्तित्व वाले आचार्य विक्रम मित्र हैं। नाटक में उनकी आयु 87 वर्ष दर्शाई गई है उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–
ऐतिहासिक गरुड़ध्वज नाटक की प्रमुख नारी पात्र वासंती है। अतः इसे ही नाटक की नायिका माना जा सकता है वासंती के पिता द्वारा वृद्धि एवं से उसका विवाह कराए जाने के विरोध में विक्रम मित्र वासंती को विदिशा के महल ले आते हैं तथा उसे सम्मान के साथ सुरक्षा प्रदान करते हैं। बाद में वासंती कालिदास की प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत होती है जिस के चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएं निम्न प्रकार से–
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में वासंती एक आदर्श नारी पात्र एवं नाटक की नायिका है जिसका चरित्र अनेक आधुनिक स्त्रियों के लिए भी अनुकरणीय है।
पंडित लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा रचित गरुड़ध्वज नाटक के नारी पात्रों में मलयवती एक प्रमुख महिला पात्र है। इसका चरित्र अत्यधिक आकर्षक सरल एवं विनोद प्रिय है मायावती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
अतः गरुड़ध्वज नाटक में मलायवती के चरित्र एवं व्यक्तित्व में सद्गुणों का समावेश है। अपने इन्हीं गुणों एवं स्वभाव के कारण वह एक आदर्श राजकुमारी के रूप में नाटक में प्रस्तुत हुई है। उनका सरल सहज और आकर्षक व्यक्तित्व उन्हें और अधिक आकर्षक बनाता है।
गरुड़ध्वज नाटक के पुरुष पात्रों में काशी राज काशी प्रदेश का राजा है जो स्वार्थी अवसर दाई है काशीराज की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि गरुड़ध्वज नाटक में काशीराज स्वार्थी कायर राजा होने के साथ-साथ उसने अपने देश के प्रति प्रेम व देशभक्ति जैसे गुण भी निहित है।
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प्रसिद्ध साहित्यकार रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य ऐतिहासिक काव्य है। त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु में छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन के त्याग तब और सात्विकता का वर्णन किया गया है साथ ही भारत की राजनीतिक एकता संघर्ष हर्ष की वीरता और उनके द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से भगाने का वर्णन किया गया है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
राजकुमार हर्षवर्धन वन में शिकार खेलने में व्यस्त थे तभी उन्हें पिता के रोग ग्रस्त होने का समाचार मिला। कुमार तुरंत लौट आए और पिता को रोग मुक्त करने के लिए वह बहुत उपचार करवाते हैं परंतु असफल रहते हैं इसी के साथ उनके बड़े भाई राज्यवर्धन उत्तरापथ पर हूणो से युद्ध करने में लगे हुए थे। हर्ष ने दूत भेजकर पिता की अस्वस्थता का समाचार उन तक पहुंचाया।
त्यागपथी खण्डकाव्य में उधर उनकी माता अपने पति की अस्वस्थता को बढ़ता हुआ देखकर आत्मदाह करने का निश्चय किया और बहुत समझाने पर भी वह अपने निर्णय पर अडिग रही और पति की मृत्यु से पूर्व ही आत्मदाह कर लिया। कुछ समय पश्चात हर्ष के पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता का अंतिम संस्कार करके हर्ष दुखी मन से राजमहल लौट आई। खंडकाव्य के प्रथम सर्ग में इस प्रकार की कहानी का वर्णन किया गया है तथा हर्ष के शुरुआती संघर्षों को दर्शाया गया है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर राज्यवर्धन भी अपने नगर लौट आए। माता पिता की मृत्यु से व्याकुल होकर उन्होंने वैराग्य लेने का निश्चय किया। परंतु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मानव राज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री को बंदी बना लिया है और उसके पति ग्रहवर्मन को मार डाला है। यह सुनकर राज्यवर्धन सब कुछ भूल कर मालव राज को परास्त करने चल पड़ते हैं।
वह गॉड नरेश को हरा देते हैं पर गोड नरेश धोखे से मार्ग में उनकी हत्या करवा देता जब यह समाचार हर्षवर्धन को ज्ञात होता है तो वह विशाल सेना लेकर गॉड नरेश से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं परंतु तभी सेनापति से अपनी बहन के वन में जाने का समाचार मिलता है जिसे सुनकर वहां अपनी बहन को खोजने बनकर चल पड़ते हैं वहां एक बिच्छू द्वारा उन्हें राजश्री के आत्मदाह करने की बात पता चलती है शीघ्र ही वहां पहुंचकर वह अपनी बहन को ऐसा करने से रोक लेते हैं और कन्नौज लौट आते हैं। इस संघ में इतना ही बताया गया है इससे आगे की कहानी अगले सर्ग में बताई गई है।
इस सर्ग में सम्राट हर्ष की इतिहास प्रसिद्ध दिग्विजय का वर्णन है 6 वर्षों तक निरंतर युद्ध करते हुए हर्ष ने समस्त उत्तराखंड को जीत लिया। रनिंग कश्मीर मिथिला बिहार बोर्ड उत्कल नेपाल बल्लवी सोरठ आज सभी राज्यों को जीत लिया तथा यवन, हूणो आदि विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को शक्तिशाली एवं सुगठित राज्य बनाया और अनेक वर्षों तक धर्म पूर्वक शासन किया। उनके राज्य में धर्म संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। उन्होंने कन्नौज को ही अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाया। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
निसर्ग में राजश्री हर्ष और आचार्य दिवाकर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है। यद्यपि राजश्री अपने भाई के साथ कन्नौज के राज्य की संयुक्त रूप से शासिका थी। परंतु मन में तथागत की उपासिका थी। और वह भिक्षुणी बनना चाहती थी। परंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं थे। बाद में आचार्य दिवाकर ने राज्यश्री को मानव कल्याण में लगने का उपदेश दिया। राज्यश्री ने उनके उपदेशों का पालन किया और वह मानव सेवा में लग गई।
इस सर्ग में हर्ष के त्यागी और रति जीवन का वर्णन किया गया है। हर्ष ने प्रयाग में त्याग व्रत महोत्सव मनाने का निश्चय किया। उन्होंने देश के सभी ब्राह्मणों श्रमिकों भिक्षुओं धार्मिक व्यक्तियों आदि को प्रयास में आने के लिए निमंत्रण दिया और संपूर्ण संचित कोष को दान देने की घोषणा की।
प्रतिवर्ष माघ के महीने में त्रिवेणी तट पर विशाल मेला लगता था इस अवसर पर प्रति पांचवे वर्ष हर्षवर्धन अपना सर्वस्व दान कर देते थे तथा अपनी बहन राजश्री से मांग कर वस्त्र धारण करते थे। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
इस प्रकार भी एक साधारण व्यक्ति के रूप में अपनी राजधानी वापस लौटे थे। इस दान गोवा प्रजा ऋण से मुक्ति का नाम दे देते थे इस प्रकार कर्तव्य परायण त्यागी परोपकारी परमवीर महाराजा हर्षवर्धन का शासन सब प्रकार से सुख कर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता था। सम्राट हर्षवर्धन के माध्यम से कवि ने तत्कालीन श्रेष्ठ शासन का उल्लेख करते हुए भारतीय धर्म राजनीति संस्कृति और समाज की उन्नति का उत्कृष्ट वर्णन किया है।
त्यागपथी नाम की सार्थकता रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य सम्राट हर्षवर्धन के जीवन वृत्त पर आधारित है। सम्राट हर्षवर्धन का संपूर्ण जीवन संघर्ष एवं त्याग की कहानी है। इस महान सम्राट ने तत्कालीन युग के छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त भारत कोई विशाल साम्राज्य सूत्र में बांधकर शांति शक्ति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त किया। वे प्रजा की वास्तविक उन्नति चाहते थे।
उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से राष्ट्र की रक्षा की थी। शांति स्थापना के बाद जब उन्होंने एक संगठित साम्राज्य की स्थापना कर ली तब भी उन्होंने विलासिता की राह नहीं पकड़ी और उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग करने का दृढ़ निश्चय किया। इस संकल्प के कारण वे तीर्थराज प्रयाग में प्रत्येक 5 वर्ष बाद अपने कोष का सर्वस्व दान कर देते थे। किसी राजपुरुष तथा सम्राट मैं त्यागी यह अलौकिक ज्योति भरी हुई हो तो वह त्यागपथी ही कहलाएगा। अतः स्पष्ट है के त्यागपथी खंडकाव्य के नाम की सार्थकता क्या है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
त्यागपथी खंडकाव्य में सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन की कथा का वर्णन हुआ है कवि ने हर्षवर्धन के माता पिता की मृत्यु भाई बहनोई की हत्या कन्नौज के राज्य संचालन मानव राज शासक से युद्ध हर्ष द्वारा दिग्विजय करके धर्म शासन की स्थापना तथा प्रत्येक पांचवे एवं तीर्थराज प्रयाग से सर्वस्व दान करने की ऐतिहासिक घटनाओं को अत्यधिक सरल एवं सरस रूप में प्रस्तुत किया है। खंडकाव्य की कथावस्तु यज्ञ पर ऐतिहासिक है तथा कवि ने अपनी कल्पना शक्ति का समन्वय कर इसे अत्यंत रचनात्मक बना दिया है।
त्यागपथी खंडकाव्य प्रभाकर वर्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती उनके दो पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन एक पुत्री राज्यश्री कन्नौज मालव गॉड प्रदेश के राज्यों के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर सेनापति आदि अनेक पात्र हैं। खंडकाव्य के नायक सम्राट हर्षवर्धन है तथा इस काव्य की नायिका हर्ष की बहन राजश्री है।
त्यागपथी खंडकाव्य की काव्यगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं
भाव पक्षीय विशेषताएं त्यागपथी खंडकाव्य की भागवत संबंधी विशेषताएं निम्नलिखित हैं
फिर गिरि श्रेणी में खोहों से बाहर आए।”
करुण रस
“मुझ मंद पुण्य को छोड़ न मां तुम भी जाओ,
छोड़ो विचार यह मुझे चरण से लिपटाओ”
वीर रस –
“कन्नौज विजय को वाहिनी सत्वर,
गुंजित था चारों ओर युद्ध का ही स्वर।”
कलापक्षीय विशेषताएं त्यागपथी खंडकाव्य की क्लागत विशेषताएं निम्नलिखित है
“संवाद यदि कोई मिला हो आपको उसका कहीं,
कृष्ण बताएं मैं इसी क्षण खोजने जाऊं वही।”
किसी भी साहित्य कृत्य में जब किसी सद्गुणी सदाचारी और महान व्यक्तित्व रखने वाले ऐतिहासिक पुरुष को चित्र किया जाता है तो उसका एकमात्र उद्देश्य जनसाधारण में उन सद्गुणों के प्रति संवेदना जागृत करना होता है। सद्गुणों का व्यक्तित्व प्रतिस्थापन और व्यवहार में उनका अनुकरण ही तो भारतीयता का प्राया है जिसका चित्रण हर्षवर्धन और राज्यश्री के चरित्रों में करके कवि ने युवकों को भारतीयता का संदेश दिया है।
प्रस्तुत खंडकाव्य में हर्षवर्धन के महान गुणों को भावात्मक अभिव्यक्ति देकर उनके असाधारण व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है। कवि का उद्देश्य जनचेतना में विशेष रूप से युवा चेतना में इन सद्गुणों के प्रति भावात्मक संवेदन उत्पन्न करना है। जागपति दांत गुणों के प्रति मन में भावात्मक संदेशों को उत्पन्न करने में सक्षम खंडकाव्य।
सम्राट हर्षवर्धन थानेश्वर के महाराजा प्रभाकर वर्धन के छोटे पुत्र हैं। वे त्यागपथी खंडकाव्य के नायक हैं। संपूर्ण कथा का केंद्र वही है। संपूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है उन्होंने छिन्न-भिन्न ने भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने का महान कार्य किया। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई देती हैं
इस प्रकार हर्ष का चरित्र एक वीर योद्धा आदर्श पुत्र आदर्श भाई और महानत्यागी शासक का चरित्र है वह अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक सजग हैं उनका यही गुण आज के भटके हुए युवाओं को प्रेरणा दे सकता है। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
कविवर रामेश्वर शुक्ल अंचल द्वारा रचित त्यागपथी खंडकाव्य की प्रमुख स्त्री पात्र राज्यश्री है। वह ममता की मूर्ति माता-पिता की प्रिय पुत्री कन्नौज की रानी और बुध की अनन्य उपासक का है। वह महाराज प्रभाकर वर्धन की पुत्री एवं सम्राट हर्षवर्धन की छोटी बहन है। विवाह के कुछ समय बाद ही उसके पति की मृत्यु हो जाती है और उसे वैधव्य जीवन बिताना पड़ता है। इसके बाद वह अपना संपूर्ण जीवन लोक कल्याण हेतु व्यतीत करती हैं। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
त्यागपथी खण्डकाव्य की सम्पूर्ण संक्षेप में कहानी में यही तक था अगर आपको लगता है कि इसमें कुछ और अध्यन सामग्री समाहित करनी है तो या तो आप हमारे कांटेक्ट पेज पर जाकर सीधे हमें राय दे हैं। त्यागपथी खंडकाव्य की कथावस्तु
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ध्रुव यात्रा के नायक रिपुदमन का चरित्र चित्रण एवं ध्रुव यात्रा की कहानी तथा ध्रुव यात्रा का सारांश तथा उद्देश्य और ध्रुव यात्रा कहानी के लेखक सभी के बारे में जानें।
इस प्रश्न पर आधारित 5 अंकों के कथा साहित्य से संबंधित दो प्रश्न पूछे जाते हैं जिसमें कथा की विशेषता एवं उसके तत्व तत्व एवं घटनाएं चरित्र चित्रण तथा भाषा एवं कहानी कला की दृष्टि से समीक्षा संबंधी प्रश्न होते हैं कहानियों पर आधारित जो प्रश्न पूछे जाते हैं वह प्रायः कहानी कला के तत्वों के आधार पर समीक्षात्मक रूप से किसी एक या दो तत्व के आधार पर ही पूछे जाते हैं कहानी में विशेष रुप से कथानक चरित्र चित्रण तथा उद्देश्य तत्व पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
इस प्रकार के प्रश्नों को हल करने के लिए अधिकतम शब्द सीमा 80 शब्द तक होती है 80 शब्द के अंदर आपको इस प्रश्न का उत्तर देना ही होता है इससे ज्यादा न तो अधिक हो जाए मेरा मतलब है कि ऐसा ना हो कि 100 से ऊपर हो जाएं और ऐसा भी ना हो कि 50 से कमरे जाए तो जो एक एवरेज शब्द सीमा होती है उसका मतलब यह है कि 80,70 या 90 इनके बीच में प्रश्न हल हो जाना चाहिए।
ध्रुव यात्रा के नायक रिपुदमन का चरित्र चित्रण – वचन और प्रेम के प्रति राजा रिपुदमन समर्पित व्यक्ति हैं निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत उनका चरित्र चित्रण किया जा सकता है
ध्रुव यात्रा का सारांश ध्रुव यात्रा की कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है यह कहानीकार जैनेंद्र की उत्कृष्ट कहानियों में से एक है इसका सारांश इस प्रकार है–
राजा रिपुदमन बहादुर उर्मिला नामक एक प्रेमिका है जिससे वह पहले विवाह के विषय में अपनी लक्ष्य सिद्धि के कारण मना कर चुका था वह उत्तरी ध्रुव की यात्रा के लिए जाने से पूर्व अपनी प्रेमिका से पति पत्नी में संबंध बना चुका था जिसके परिणाम स्वरूप उनका एक पुत्र भी उत्पन्न हो चुका था। उत्तरी ध्रुव की यात्रा तो उसने पूर्ण कर ली लेकिन उसका मन व्याकुल रहने लगा।
वह भारत लौटा उसके स्वागत की जोर शोर से तैयारियां हुई। वह मुंबई से दिल्ली आ गया। यह सब समाचार उर्मिला समाचार पत्रों में पढ़ती रही। रिपुदमन को नींद कम आती थी, उसका मन पर काबू नहीं रहता था अतः वह उपचार हेतु मारुति आचार्य के पास पहुंचा।
मारुति ने उसे विजेता कहकर पुकारा तो उसने कहा कि मैं रोगी हूं विजेता छल है। उसने रिपुदमन से अगले दिन 3:20 पर आने को कहा तथा डायरी में पूर्ण दिनचर्या एवं खर्च लिखने को कह कर उसे विदा कर दिया। अगले दिन वह समय पर पहुंचा। आचार्य ने सब कुछ देख कर कहा तुम्हें कोई रोग नहीं है। तुम्हें अच्छे संबंध मिल सकते हैं उन्हें चुल्लू विवाह अनिष्ट वस्तु नहीं है वह तो गृहस्थ आश्रम का द्वार है।
लेकिन रिपुदमन ने कोई जवाब नहीं दिया। पति ने परसों मिलने की बात कही। अगले दिन वह सिनेमा गया जहां पर उसकी बेटी उर्मिला से हो गई । वहां बच्चे को लाई थी रिपुदमन ने बच्चे को लेना चाहा लेकिन और मिला उसे अपने कंधे से चिपकाए जीने पर चढ़ती चली गई। उसने घंटी बजा कर एक आदमी को बॉक्स पर बुलाया और दो आइसक्रीम लाने का आदेश दिया। रिपुदमन ने उर्मिला से बच्चे के नाम के बारे में पूछा तो उस ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब नाम तुम ही रखोगे।
उसने दो नाम सुझाए लेकिन उर्मिला ने कहा मैं इसे मधु कहती हूं। सिनेमा देखना बीच में छोड़कर दोनों ने बीती जिंदगी की चर्चा की। रिपुदमन ने कहा उर्मिला तुम अभी भी मुझसे नाराज हो। उर्मिला बोली मैं तुम्हारे पुत्र की मां हूं। तुम अपने भीतर के वेग को शिथिल न करो तीर की भांति लक्ष्य की ओर बढ़ो। याद रखना कि पीछे एक है जो इसी के लिए जीती है। राजा तुम्हें रुकना नहीं है पर अनंत हो यही गति का आनंद है।
राजा ने कहा मैं आचार्य मारुति के यहां गया था और उसने विवाह का सुझाव दिया है। उर्मिला उसे ढोंगी कहती है तथा कहती है कि वह प्रगति शीलता में बाधक है तेजस्विता का अपहरण है। रिपुदमन कहता है कि मुझे जाना ही होगा, तुम्हारा प्रेम दया नहीं जानता। इसके बाद वह दिए गए समय अनुसार मारुति आचार्य से मिलने जाता है। उनके पूछने पर वह उर्मिला के विषय में बताता है।
आचार्य कहता है ठीक है तुम उसी से शादी कर लो, वह धनंजय की बेटी है। वह मेरी ही बेटी है, मैं उसे समझा दूंगा। उर्मिला आचार्य से मिलती है तो वह भी अनेक प्रकार से उसे समझाता है। फिर रिपुदमन उर्मिला से पूछता है कि क्या तुम आचार्य से मिली? अब बताओ मुझे क्या करना है।
वह कहती है कि तुम्हें अब दक्षिणी ध्रुव जाना है। वह सर लैंड द्वीप के लिए जहाज तय कर लेता है तथा परसों जाने की बात कहता है। इस पर उर्मिला कहती है, नहीं राजा, परसों नहीं जाओगे। रिपुदमन कहता है, मिस्त्री की बात नहीं सुनना, मुझे प्रेमिका के मंत्र का वरदान है। यह खबर सर्वत्र फैल जाती है कि रिपुदमन दक्षिणी ध्रुव की यात्रा पर जा रहा है। और मेला भी कल्पना में खोई रहती है–राष्ट्रपति की ओर से दिया गया भोज हो रहा होगा राष्ट्रदूत होंगे सब नायक सब दल पति।
तीसरे दिन उसने अखबार में पढ़ा कि राजा रिपुदमन सवेरे खून में शनि पाए गए गोली का कनपटी के आर पर निशान है अखबारों ने अपने विशेष अंकों में मृतक के तकिए के नीचे मिले पत्र को भी छापा था, उसमें यात्रा को निजी कारणों से किया जाना बताया गया था। कहां था कि इस बार मुझे वापस नहीं आना था दक्षिणी ध्रुव के एकांत में मृत्यु सुखकर होती।
उस पत्र की अंतिम पंक्ति थी मुझे संतोष है कि मैं किसी की परिपूर्णता में काम आ रहा हूं। मैं पूरे होशो हवास में अपना काम तमाम कर रहा हूं। भगवान मेरे प्रिय के अर्थ मेरी आत्मा की रक्षा करें। लक्ष्य के प्रति उड़ान भरी कहानी का करुणामई रूप से अंत हो जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं की कहानी ध्रुव यात्रा एक मनोवैज्ञानिक कहानी है इसमें लक्ष्य प्राप्ति की बात पर कथा नायक राजा रिपुदमन सिंह की अपनी प्रेमिका से खटक गई थी प्रेमिका ने अपने प्रेमी की लक्ष्य निष्ठा पर शान चढ़ाई जिसकी चरम परिणति नायक का करोड़ अंत हुआ अत्यंत संस्था संसार बंधनों से ऊपर होती है कथाकार ने इसी तथ्य को कहानी में साकार किया है रिपुदमन की एक भूल से उर्मिला चिढ़ गई तथा जीवन खंडहर हो गया।
ध्रुव यात्रा कहानी के कथानक ने प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा के मनोवैज्ञानिक धरातल पर विस्तार पाया है। तथ्य की दृष्टि से कथानक अत्यंत संक्षिप्त है की विवाह अथवा संयोग स्त्री पुरुष के प्रेम की पराकाष्ठा अथवा लक्ष्य नहीं है वरन एक दूसरे के यश कीर्ति के मार्ग की बाधा बने बिना प्राप्त चिरवयोग भी प्रेम की पराकाष्ठा है। वास्तविक प्रेम दूसरे के लक्ष्य और भावनाओं की पूर्ति के लिए किए गए सर्वस्व त्याग में निहित है। कहानी के कथानक में प्रेम मैंने त्याग और समर्पण के अंतर्द्वंद को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया गया है।
यद्यपि कहानी का कथानक स्पष्ट चुटीला और मार्मिक है किंतु पात्रों के अंतर्द्वंदओ की अभिव्यक्ति के कारण कुछ उलझ सा गया है। कहानी के कथानक का आरंभ बड़ी तेज गति के साथ हुआ मगर आगे चलकर उसकी गति धीमी होती चली गई। इतना सब होने के उपरांत भी कथानक के पात्रों के वैचारिक मंथन के कारण सर्वत्र कौतूहलता और रोचकता बनी रही हैं।
कथानक की एक विशेषता यह है कि पात्रों ने मानसिक द्वंद के साथ-साथ पाठकों के भीतर भी एक द्वंद निरंतर चलता रहता है कि अमुक पात्र का ऐसा सोचना क्या उचित है। उसे यहां ऐसा नहीं करना चाहिए उसे अब इस प्रकार का आचरण करना चाहिए। इसी धुंध में पाठक को अनेक बार लगता है कि कथानक का चरमोत्कर्ष आ गया है और इस कथा का अंत इस परिणीति के साथ होता है किंतु अगले ही क्षण उसे अपना मत बदलना पड़ता है। इस प्रकार कहानी का कथानक संक्षिप्त रोचक मार्मिक एवं व्यवस्थित है।
आलोचक कहानी ध्रुव यात्रा का मूल उद्देश्य प्रेम की पवित्रता और पराकाष्ठा की विवेचना एवं वचन पालन के महत्व को प्रतिष्ठित करना है। कहानीकार के अनुसार व्यक्तित्व सुखों की अपेक्षा सर्व भौमिक एवं अलौकिक उपलब्धि श्रेया कर हैं।
निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि ध्रुव यात्रा कहानी तत्वों की दृष्टि से एक सफल मनोवैज्ञानिक कहानी है। वास्तव में ध्रुव यात्रा की कहानी एक प्रेरणा जनक कहानी है। ध्रुव यात्रा की कहानी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ध्रुव यात्रा कहानी का उद्देश्य यही था।
ध्रुव यात्रा कहानी के लेखक का नाम सुप्रसिद्ध कहानीकार जैनेन्द्र कुमार हैं।
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मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित लोकायतन महाकाव्य का एक अंश है इसमें वर्ष 1921 से 1947 तक के मध्य गठित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया गया है। अंग्रेज शासकों ने नमक पर कर बढ़ा दिया था महात्मा गांधी ने इसका डटकर विरोध किया साबरमती आश्रम से 24 दिनों की यात्रा करके दांडी ग्राम पहुंचे और सागर तट पर नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा।
इसके माध्यम से वे अंग्रेजों के इस कानून का विरोध करके जनता में चेतना उत्पन्न करना चाहते थे उनके इस विरोध का आधार सत्य और अहिंसा था। गांधी जी के सत्याग्रह से शासक शब्द हो गए और उन्होंने भारतीयों पर दमन चक्र चलाना आरंभ कर दिया। गांधीजी तथा कई नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
भारतीय द्वारा जेलें में भरी जाने लगी। जैसे तैसे दमन चक्र आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे मुक्ति यज्ञ भी बढ़ता चला गया गांधीजी ने भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। सब ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया। वर्ष 1927 में भारत में साइमन कमीशन आया जिसका भारतीयों ने बहिष्कार किया। साइमन कमीशन को वापस जाना पड़ा। वर्ष 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो का नारा दिया। अब सब पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।
अंग्रेजों ने फूट डालो की नीति अपनाकर मुस्लिम लीग की स्थापना कर दी। मुस्लिम लीग ने भारत में विभाजन की मांग की । वर्ष 1947 में भारत को पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। अंग्रेजों ने भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन कर दिया। देश में एक और तो स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जा रहा था वहीं दूसरी ओर विभाजन के विरोध में गांधीजी मौन व्रत धारण किए हुए थे। वे चाहते थे कि हिंदू मुस्लिम पारस्परिक वेयर को त्यागकर सत्य अहिंसा प्रेम आदि सात्विक गुणों को अपनाएं एवं मिलजुल कर रहे। इस प्रकार मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य देशभक्ति से परिपूर्ण गांधी युग के स्वर्णिम इतिहास का काव्यात्मक आलेख है।
इसमें उस युग का वर्णन है जब भारत में चारों ओर हलचल मची हुई थी चारों ओर क्रांति की अग्नि धधक रही थी कविवर पंत ने महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से विभिन्न आदर्शों की स्थापना का सफल प्रयास किया है।
मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का संपूर्ण कथानक भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ है। इसके नायक महात्मा गांधी हैं जो परंपरागत नायकों से हटकर है। इनका यही व्यक्तित्व भारतीय जनता को प्रेरणा और शक्ति देता है। भारत को स्वतंत्र कराने के लिए इन्होंने एक प्रकार से यज्ञ का आयोजन किया जिसमें अनेक देशभक्तों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। देश की मुक्ति के लिए चलाए गए यज्ञ के कारण ही इस खंडकाव्य का नाम मुक्ति यज्ञ रखा गया जो पूर्णतया सार्थक एवं उचित है।
मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य का उद्देश्य प्रधान रचना है। कवि इस रचना के माध्यम से मनुष्य को परतंत्र भारत की विषम परिस्थितियों से परिचित कराना चाहता है इस उद्देश्य में कभी पूर्णत असफल रहा है।
कवि ने आधुनिक युग की घटना को खंडकाव्य का विषय बनाया है। उनका उद्देश्य भावी पीढ़ी को देश की आजादी के इतिहास से परिचित कराना है साथ ही गांधी दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रदर्शित करना है। कवि ने पश्चिमी भौतिकवाद दर्शन और गांधीवादी मूल्यों के बीच संघर्ष का चित्रण किया है और अंत में गांधीवादी जीवन मूल्यों की विजय पर शंखनाद किया है।
कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय हिंसा पर अहिंसा की विजय दिखाकर मानवता के प्रति सच्ची आस्था उत्पन्न करना है तथा जन जन में विश्व बंधुत्व और प्रेम की भावना का संचार करना है।
पंत जी ने मुक्ति यज्ञ के माध्यम से लोक कल्याण का संदेश दिया है काव्य के नायक गांधी जी को लोक नायक के रूप में चित्रित कर जातिवाद सांप्रदायिकता और रंगभेद का कट्टर विरोध किया है।
कवि का उद्देश्य केवल स्वतंत्रता संग्राम के दृश्यों का चित्रण करना ही नहीं है अपितु कवि ने शाश्वत जीवन मूल्यों का भी उद्घोष किया है जो सत्य अहिंसा त्याग प्रेम और करुणा की विश्वव्यापी भावनाओं पर आधारित है गांधीवादी दर्शन को माध्यम बनाकर कवि ने विश्व बंधुत्व और मानवतावाद संबंधी आदर्शों की स्थापना की है।
मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य की अनेकों विशेषताएं नीचे प्रस्तुत की गई हैं पंत जी द्वारा रचित मुक्ति यज्ञ की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
इस प्रकार मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य सत्य पर आधारित खंडकाव्य है इसमें महात्मा गांधी ने जो कुछ भी किया वहां राष्ट्र समाज और मानवता के कल्याण के लिए किया।
मुक्तियज्ञ खण्डकाव्य में गांधीजी को नायक के रूप में चित्रित किया गया है। वह इस सदी के महानायक हैं। उन्होंने शहंशाह प्रेम भाईचारे के
महान गुणों से विश्व और मानवता का कल्याण किया है, लोगों को परम सुख और संतोष प्रदान किया है। महात्मा गांधी जो कि मुक्ति यज्ञ खंडकाव्य के नायक हैं उनका चरित्र चित्रण निम्न प्रकार से आधारित है–
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रश्मिरथी खंडकाव्य रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित है इस खंडकाव्य को 7 भागों में विभाजित किया गया है हम आपको रश्मिरथी खंडकाव्य के सातों भागों का संक्षिप्त वर्णन बताने वाले हैं जो निम्न प्रकार से हैं-
रश्मिरथी खंडकाव्य के प्रथम सर्ग में। कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था और उसके पिता सूर्य थे। लोक लाज के भय से कुंती ने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे सूट यानी सारथी ने बचाया और उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर उसका पालन पोषण करना शुरू कर दिया।
सूट के घर पलकर भी कर्ण महान धनुर्धर, शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और दानवीर बना।
एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव पांडव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी दर्शक अर्जुन की धनुर्विद्या के प्रदर्शन को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, किंतु तभी कर्ण ने सभा में उपस्थित होकर अर्जुन को द्वंद युद्ध के लिए ललकारा। कृपाचार्य ने कर्ण से उसकी जाति और गोत्र के विषय में पूछा। इस पर करंट ने स्वयं को सूत पुत्र बताया एवं निम्न जाति का कहकर उसका अपमान किया गया।
उसे अर्जुन से द्वंद युद्ध करने के योग्य समझा गया, पर दुर्योधन कर्ण की वीरता एवं तेजस्विता से अत्यंत प्रभावित हुआ और उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। साथ ही उसे अपना अभिन्न मित्र बना लिया। गुरु द्रोणाचार्य भीकरण की वीरता को देखकर चिंतित हो उठे और कुंती भी कर्ण के प्रति किए गए बुरे व्यवहार के लिए उदास हुई।
रश्मिरथी खंडकाव्य के द्वितीय सर्ग में राजपुत्रों के विरोध से दुखी होकर कर कर्ण ब्राह्मण रूप में परशुराम जी के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए गया। परशुराम जी ने बड़े प्रेम के साथ कर्ण को धनुर्विद्या सिखाई। एक दिन परशुराम जी करण की जगह पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक कीड़ा कर्ण की जगह पर चढ़कर खून चूसता चूसता उसकी जांघ में प्रविष्ट हो गया। रक्त बहने लगा पर कर्ण इस असहनीय पीड़ा को चुपचाप सहन करता रहा और शान्त रहा, क्योंकि कहीं गुरुदेव की निद्रा में विघ्न न पड़ जाए।
जंघा से निकलते रक्त के स्पर्श से गुरुदेव की निद्रा भंग हो गई। अब परशुराम को कर्ण के ब्राह्मण होने पर संदेह हुआ। अंत में कर्ण ने अपनी वास्तविकता बताइ। इस पर परशुराम ने कर्ण से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार छीन लिया और उसे श्राप दे दिया। कर्ण गुरु के चरणों का स्पर्श कर वहां से चला गया।
रश्मिरथी खंडकाव्य तृतीय सर्ग में 12 वर्ष का वनवास और अज्ञातवास की 1 वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर पांडव अपने नगर इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस मांगते हैं लेकिन दुर्योधन पांडवों को एक सुई की नोक के बराबर भूमि देने से भी इंकार कर देता है। श्री कृष्ण संधि प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास आते हैं। दुर्योधन इस संधि के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता और श्री कृष्ण को ही बंदी बनाने का प्रयास करता है। श्री कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर उसे भयभीत कर दिया। दुर्योधन के न मानने पर श्री कृष्ण ने कर्ण को समझाया।
श्री कृष्ण ने कर्ण को उसके जन्म का इतिहास बताते हुए उसे पांडवों का बड़ा भाई बताया और युद्ध के दुष्परिणाम भी समझाएं लेकिन करण ने श्री कृष्ण की बातों को नहीं माना और कहा कि वह युद्ध में पांडवों की ओर से सम्मिलित नहीं होगा। दुर्योधन ने उसे जो सम्मान और स्नेह दिया है वह उसका आभारी है।
रश्मिरथी खंडकाव्य
रश्मिरथी खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग में जब कर्ण ने पांडवों के पक्ष में जाने से इंकार कर दिया तो इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास आए। वह कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेना चाहते थे। कर्ण इंद्र के इस छल प्रपंच को पहचान गया परंतु फिर भी उसने इंद्र को सूर्य के द्वारा दिए गए कवच और कुंडल दान में दे दिए। इंद्र कर्ण कि इस दानवीरता को देखकर अत्यंत लज्जित हुए। उन्होंने स्वयं को प्रवचन कुटिल और पापी का तथा वे प्रसन्न होकर करण को एकघ्नी नामक अमोघ शक्ति प्रदान की।
रश्मिरथी खंडकाव्य के पंचम सर्ग में कुंती को चिंता है कि रणभूमि में मेरे ही दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। इससे चिंतित हो वह कर्ण के पास जाती है और उसके जन्म के विषय में सब बताती है। कर्ण कुंती की बातें सुनकर भी दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है किंतु अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पांडव को न मारने का वचन कुंती को दे देता है। कर्ण कहता है कि तुम प्रत्येक दशा में पांच पांडवों की माता बनी रहोगी। कुंती निराश हो जाती है। कर्ण ने युद्ध समाप्त होने के बाद कुंती की सेवा करने की बात कही। कुंती निराश मन से लौट आती है।
रश्मिरथी खंडकाव्य के षष्ठ सर्ग में श्री कृष्ण इस बात से भलीभांति परिचित थे किरण के पास इंद्र द्वारा दी गई एकघ्नी शक्ति है। जब कर्ण को सेनापति बनाकर युद्ध में भेजा गया तो उस श्री कृष्ण ने घटोत्कच को करण से लड़ने के लिए भेज दिया। दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने एकघ्नी शक्ति से घटोत्कच को मार दिया। इस वजह से कल अत्यंत दुखी हुए, पर पांडव अत्यंत प्रसन्न हुए। श्री कृष्ण ने अपनी नीति से अर्जुन को अमोघ शक्ति से बचा लिया था। परंतु कर्ण ने फिर भी छल से दूर रहकर अपने व्रत का पालन किया। रश्मिरथी खंडकाव्य
रश्मिरथी खंडकाव्य के सप्तम सर्ग में कर्ण का पांडवों से भयंकर युद्ध होता है वह युद्ध में अन्य सभी पांडवों को पराजित कर देता है, पर माता कुंती को दिए गए वचन का स्मरण कर सबको छोड़ देता है। कर्ण और अर्जुन आमने-सामने हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। अर्जुन कर्ण के बाणों से विचलित हो उठते हैं। एक बार तो वह मूर्छित भी हो जाते हैं। तभी कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फंस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है, तभी श्री कृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण चलाने की आज्ञा देते हैं।
श्री कृष्ण के संकेत करने पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर प्रहार कर देते हैं। कर्ण की मृत्यु हो जाती है पर वास्तव में नैतिकता की दृष्टि से तो कर ही नहीं रहता है। श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली पर मर्यादा को खो कर।
प्रस्तुत खंडकाव्य रश्मिरथी के आधार पर कर्ण के चरित्र चित्रण निम्नलिखित विशेषताओं के आधार पर किया गया है–
“रवि पूजन के समय सामने, जो याचकआता था,
मुंह मांगा वरदान करण से अनायास पाता था।”
इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण कर करण के पास आते हैं तदपी वह इंद्र के छल को पहचान लेता है फिर भी वह इंद्र को सूर्य द्वारा दिए गए कवच और कुंडल दान में दे देता है।
“अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे,
तुम मिले कौरवों को वैसे।”
इस प्रकार कहा जाता है कि कर्ण का चरित्र दिव्य एवं उच्च संस्कारों से युक्त है। वह शक्ति का स्रोत है, सच्चा मित्र है, महादानी और त्यागी है। वस्तुतः उसकी यही विशेषताएं उसे खंड काव्य का महान नायक बना देती हैं।
कुंती पांडवों की माता है। सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से ही हुआ था। इस प्रकार कुंती के पांच नहीं वरन 6 पुत्र थे।
कुंती के चरित्र को निम्नलिखित विशेषताओं से प्रस्तुत किया जा सकता है–
इस प्रकार कवि ने रश्मिरथी में कुंती के चरित्र में कई उच्च गुणों का समावेश किया है और इस विवश मां की ममता को महान बना दिया है।
इस खंडकाव्य में श्री कृष्ण एक मुख्य पात्र की भूमिका निभाते हैं रश्मिरथी खंडकाव्य के आधार पर श्री कृष्ण की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
“तो ले अब मैं जाता हूं, अंतिम संकल्प सुनाता हूं।
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या कि मरण होगा।”
“मगर, जो हो, मनुष्य श्रेष्ठ था वह,
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्राह्मय था, मन से यति था।”
इस प्रकार श्री कृष्ण महान कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्ति संपन्न है। इसके साथ ही वे लोक कल्याण एवं मंगल भावना के नए स्वरूप को भी धारण किए हुए हैं।
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डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार अध्याय में 9 सर्ग है प्रत्येक शर्मा का वर्णन निम्न प्रकार से दिया गया है। श्रवण कुमार का चरित्र चित्रण अपने आप में एक सीख है।
अयोध्या के गौरवशाली इतिहास में अनेक महान राजाओं की गौरव गाथा छिपी हुई है अनेक राजाओं जैसे पृथु इस्साकू ध्रुव सगर दिलीप रघु ने अयोध्या को प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचाया। इसी अयोध्या में सत्यवादी हरिश्चंद्र और गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले राजा भागीरथ ने शासन किया। राजा रघु के नाम पर ही स्कूल का नाम रघुवंश पड़ा।
महाराज दशरथ राजा अज के पुत्र थे। अयोध्या के प्रतापी शासक राजा दशरथ ने राज्य में सर्वस्व शांति थी। चारों ओर कला कौशल उपासना संयम तथा धर्म साधना का साम्राज्य था। सभी वर्ग संतुष्ट थे। महाराज दशरथ स्वयं एक महान धनुर्धर थे जो शब्दभेदी बाण चलाने में सिद्धहस्त थे।
सरयू नदी के तट पर एक आश्रम था जहां श्रवण कुमार अपने वृद्धि एवं नेत्र हीन माता-पिता के साथ सुख एवं शांति पूर्वक निवास करता था। वह अत्यंत आज्ञाकारी एवं अपने माता पिता का भक्त था। उनकी तपस्या के प्रभाव से हिंसक पशु भी अपने हिंसा भूल गए थे।
1 दिन गोधूलि बेला में राजा दशरथ विश्राम कर रहे थे तभी उनके मन में आखेट की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने अपने साथी को बुलावा भेजा। रात्रि में सोते समय राजा ने एक विचित्र स्वप्न देखा कि एक हिरण का बच्चा उनके बाण से मर गया और हिरनी खड़ी आंसू आ रही है।
राजा सूर्योदय से बहुत पहले जग कर आखेट हेतु वन की ओर प्रस्थान कर देते हैं। दूसरी ओर श्रवण कुमार माता पिता की आज्ञा से जल लेने के लिए नदी के तट पर जाता है। जल में पात्र डुबाने की धूनी को किसी हिंसक पशु की ध्वनि समझकर राजा दशरथ शब्दभेदी बाण चला देते हैं।
यह बात सीधी श्रवण कुमार को जाकर लगता है वह चित्रकार कर उठता है श्रवण कुमार की चीख सुन राजा दशरथ चिंतित होते हैं।
राजा दशरथ के बाण से घायल श्रवण कुमार को यह समझ में नहीं आता है कि उसे किस ने बाण मारा वह अपने अंधे माता पिता की चिंता में व्याकुल है कि अब उसके माता-पिता की देखभाल कौन करेगा
वह बड़े दुखी मन से राजा से कहता है कि उन्होंने एक नहीं बल्कि एक साथ तीन प्राणियों की हत्या कर दी है। उसने राजा से अपने माता-पिता को जल पिलाने का आग्रह किया। इतना कहते ही उसकी मृत्यु हो गई। राजा दशरथ अत्यंत दुखी हुए और से जल लेकर श्रवण कुमार के माता पिता के पास गए।
राजा दशरथ दुख एवं चिंता से भरकर सिर झुकाए आश्रम की ओर जा रहे थे। वे अत्यंत आत्मग्लानि एवं अपराध भावना से भरे हुए थे। पश्चाताप आशंका और भय से भर कर के आश्रम पहुंचते हैं।
श्रवण के माता पिता अपने आश्रम में पुत्र के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह इस बात से आशंकित थे कि अभी तक उनका पुत्र लौटकर क्यों नहीं आया।
उसी समय उन्होंने किसी के आने की आहट सुनी। वे राजा दशरथ को श्रवण कुमार ही समझ रहे थे। जब राजा ने उन्हें जल लेने के लिए कहा तो उनका भ्रम दूर हुआ। राजा दशरथ ने उन्हें अपना परिचय दिया और जल लाने का कारण बताया। श्रवण की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके वृद्ध माता-पिता अत्यंत व्याकुल हो उठे।
सप्तम सर्ग में ऋषि दंपति के करुण विलाप का चित्रण है वह आंसू बहाते हुए विलाप करते हुए नदी के तट पर पहुंचे और विलाप करते करते राजा दशरथ से कहते हैं कि यद्यपि यह प्राप्त में अनजाने में हुआ है पर इसका दंड तो तुम्हें भुगतना ही होगा।
वह शराब देते हैं कि जिस प्रकार पुत्र शोक में मैं प्राण त्याग रहा हूं उसी प्रकार एक दिन तुम भी पुत्र वियोग में प्राण त्याग दोगे।
श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए सर आपको सुनकर राजा अत्यंत दुखी होते हैं। श्रवण के माता पिता जब रो-रोकर शांत होते हैं तो उन्हें श्राप देने का दुख होता है।
अब पिता को आत्मबोध होता है और वे सोचते हैं कि यह तो नियति का विधान था। तभी श्रवण कुमार अपने दिव्य रूप में प्रकट हुआ और उसने अपने माता-पिता को सांत्वना दी। पुत्र सुख में व्याकुल माता-पिता भी अपने प्राण त्याग देते हैं।
राजा दशरथ दुखी मन से अयोध्या लौट आते हैं। वे इस घटना का जिक्र किसी से नहीं करते हैं परंतु राम जब वन को जाने लगते हैं तो उन्हें उस सर आपका स्मरण हो आता है और वह यह बात अपनी रानियों को बताते हैं।
डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित प्रस्तुत खंडकाव्य का उद्देश्य है कि पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगी युवा पीढ़ी जीवन मूल्यों से दूर ना हो बच्चे अपने कर्तव्य से विमुख न हो बल्कि वह बड़ों का यथा चित्र सम्मान करें।
आज युवा पीढ़ी में अनैतिकता उद्दंडता और अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है वह अपने गुरुजनों और माता पिता के प्रति श्रद्धा रहित होती जा रही है। अतः आवश्यकता इस बात की है युवा वर्ग में त्याग सहिष्णुता दया परोपकार क्षमा सिलता उच्च संस्कार भावात्मक एकता आदि नैतिक आदर्शों एवं जीवन मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा की जाए।
कवि ने इस खंडकाव्य के माध्यम से युवा वर्ग को श्रवण कुमार की भांति बनने की प्रेरणा दी है। उनकी बातें वह भी अपने जीवन में अपने आचरण में इन आदर्शों को उतार सकें और गर्व से यह कह सके कि मुझे बालों की चिंता नहीं सता रही है मुझे अपनी मृत्यु का भय नहीं है लेकिन मुझे अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता-पिता की चिंता है कि मेरे बाद उनका क्या होगा?
डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य का प्रमुख पात्र श्रवण कुमार के रूप में प्रस्तुत किया गया है इस प्रमुख पात्र की चरित्र गत विशेषताओं पर प्रकाश डालना ही कवि का प्रमुख उद्देश्य है। खंडकाव्य का मुख्य उद्देश्य होने के कारण इसका शीर्षक श्रवण कुमार रखा गया है जो कथा अनुसार पूर्णतः उपयुक्त प्रतीत होता है। श्रवण कुमार खंडकाव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व मार्मिक प्रसंग दशरथ का श्रवण कुमार के पिता द्वारा साबित होना है परंतु इस पसंद की अभिव्यक्ति का भान श्रवण कुमार के व्यक्ति से ही बद्ध है।
खंडकाव्य की कथावस्तु के अनुसार दशरथ का चरित्र सक्रियता की दृष्टि से सर्वाधिक है परंतु दशरथ के चरित्र के माध्यम से भी श्रवण कुमार के चरित्र की विशेषताएं ही प्रकाशित हुई है। इस खंडकाव्य के मुख्य पात्र श्रवण कुमार ही है और श्रवण कुमार शीर्षक उपयुक्त है।
डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य का नायक रिसीव पुत्र श्रवण कुमार है। वह सरयू नदी के तट पर अपने अंधे माता पिता के साथ एक आश्रम में रहता है। कवि ने श्रवण कुमार के चरित्र को बड़ी कुशलता पूर्वक चित्रित किया है उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं
डॉक्टर शिवबालक शुक्ला द्वारा रचित श्रवण कुमार खंडकाव्य में दशरथ का चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह एक योग्य शासक एवं आखेट प्रेमी हैं। वह रघुवंशी राजा अज के पुत्र हैं। संपूर्ण खंडकाव्य में वह विद्यमान है। श्रवण कुमार के माता पिता का क्या नाम था?
उनकी चरित्र की विशेषताएं निम्न प्रकार से हैं–
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सत्य की जीत खंडकाव्य की कथा महाभारत के द्रोपति चीर हरण की अत्यंत संक्षिप्त किंतु मार्मिक घटना पर आधारित है। सत्य की जीत खंडकाव्य एक अत्यंत लघु काव्य है जिसमें कभी नहीं पुरातन आख्यान को वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत किया है।
दुर्योधन पांडवों को दूध क्रीडा में खेलने के लिए आमंत्रित करता है और छल प्रपंच से उनका सब कुछ छीन लेता है युधिष्ठिर जुए में स्वयं को हार जाते हैं अंत में वह द्रोपदी को भी दांव पर लगा देते हैं और हार जाते हैं। इस पर कौरव भरी सभा में द्रोपदी को वस्त्र हीन करके अपमानित करना चाहते हैं।
दुशासन द्रौपदी के केस खींचते हुए उसे सभा में लाता है। द्रोपदी के लिए यह अपमान असहाय हो जाता है। वह सभा में प्रश्न उठाती है कि जो व्यक्ति स्वयं को हार गया है उसे अपनी पत्नी को दांव पर लगाने का क्या अधिकार है।
अतः में कौरवों द्वारा विजित नहीं हूं। दुशासन उसका चीर हरण करना चाहता है। उसके इस कुकर्म पर द्रोपदी अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ सत्य का सहारा लेकर उसे ललकार ती है और वस्त्र खींचने की चुनौती देती है।
“ओ–ओ! दुशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध
किसे कहते हैं उसका अपमान
कर आऊंगी मैं इसका बोध।।”
तब दुशासन दुर्योधन के आदेश पर भी उसके चीर हरण का साहस नहीं कर पाता। दुर्योधन का छोटा भाई विकर्ण द्रोपदी का पक्ष लेता है। उसके समर्थन में अन्य सभासद भी दुर्योधन और दुशासन की निंदा करते हैं। क्योंकि वह सभी या अनुभव करते हैं कि यदि आज पांडवों के प्रति होते हुए अन्याय को रोका नहीं गया, तो इसका परिणाम बहुत बुरा होगा। अंततः धृतराष्ट्र पांडवों के राज्य को लौटा कर उन्हें मुक्त करने की घोषणा करते हैं।
सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि ने द्रोपदी के चीर हरण की घटना में श्री कृष्ण द्वारा चीर बढ़ाए जाने की अलौकिकता को प्रस्तुत नहीं किया है। द्रोपदी का पक्ष सत्य न्याय का पक्ष है। तात्पर्य यह है कि जिसके पास सत्य और न्याय का बल हो असत्य रूपी दुशासन उसका चीरहरण नहीं कर सकता। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी और युग के अनुकूल सृजित किया है और नारी के सम्मान की रक्षा करने के संकल्प को दोहराया है।
इस प्रकार प्रस्तुत खंडकाव्य की कथावस्तु अत्यंत लघु रखी गई है कथा का संगठन अत्यंत कुशलता से किया गया है। इस प्रकार सत्य की जीत को एक सफल खंडकाव्य कहना सर्वथा उचित होगा।
श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित सत्य की जीत खंडकाव्य में द्रोपदी चीर हरण के प्रसंग का वर्णन किया गया है, किंतु यहां सर्वथा नवीन है। अत्याचारों को द्रोपदी चुपचाप स्वीकार नहीं करती वरुण पूर्ण आत्म बल से उसके विरुद्ध संघर्ष करती है। चिल्ड्रन के समय वह दुर्गा का रूप धारण कर लेती है जिससे दुशासन सहन जाता है। सभी गौरव द्रोपदी के सत्य बल तेज और सतीत्व के आगे कांत हीन हो जाते हैं। अंततः जीत उसी की होती है और पूरी राज्यसभा उसके पक्ष में हो जाती है।
सत्य की जीत खंडकाव्य के माध्यम से कवि का उद्देश्य सत्य को असत्य पर विजय प्राप्त करते हुए दिखाना है। खंडकाव्य के मुख्य आध्यात्मिक भाव सत्य की असत्य पर विजय है। अतः खंडकाव्य का शीर्षक सर्वथा उपयुक्त है।
सत्य की जीत खंडकाव्य में कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय दिखाना है सत्य की जीत खंडकाव्य का मूल उद्देश्य माननीय सद्गुणों एवं उदात्त भावनाओं को चित्रित करके समाज में इनकी स्थापना करना है और समाज के उत्थान में नर-नारी का समान रुप से सहयोग देना है।
सत्य की जीत खंडकाव्य में निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन किया गया है जो निम्न प्रकार से प्रस्तुत है–
“जहां है सत्य, जहां है धर्म, जहां है न्याय, वहां है जीत”
“जिए हम और जीए सब लोग।”
इससे सत्य अहिंसा और न्याय मैत्री करुणा आदि को बल मिलेगा और समस्त संसार एक परिवार की भांति प्रतीत होने लगेगा।
सत्य की जीत खंडकाव्य में इस प्रकार सत्य की जीत एक विचार प्रधान खंडकाव्य है। इसमें सास्वत भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है और स्वार्थ एवं ईर्ष्या के समापन की कामना भी की गई है। कवि पाठकों को सदाचार पूर्ण जीवन की प्रेरणा देना चाहता है। वह उन्नत मानवीय जीवन का संदेश देता है।
सत्य की जीत खंडकाव्य में द्वारिका प्रसाद महेश्वरी द्वारा रचित खंडकाव्य सत्य की जीत की नायिका द्रोपदी है। कवि ने उसे महाभारत की द्रौपदी के समान सुकुमार निरीह रूप में प्रस्तुत न करके आत्मसम्मान से युक्त ओजस्वी सशक्त एवं वाकपटु वीरांगना के रूप में चित्रित किया है। सत्य की जीत खंड काव्य की नायिका द्रोपदी का चरित्र चित्रण की विशेषताएं निम्न प्रकार से प्रस्तुत है–
“न्याय में रहा मुझे विश्वास,
सत्य में शक्ति अनंत महान।
मानती आई हूं मैं सतत,
सत्य ही है ईश्वर, भगवान।”
“ओ–ओ! दुशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध
किसे कहते हैं उसका अपमान
कर आऊंगी मैं इसका बोध।।”
“पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ,
बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
चाहिए नारी का नारीत्व,
तभी होगा यहां पूरा सर्ग।”
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है द्रोपदी पांडव कुलवधू,वीरांगना, स्वाभिमानी, आत्म गौरव संपन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, सती साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मंडित एवं नारी जाति का आदर्श है।
सत्य की जीत खंडकाव्य मैं दुशासन एक प्रमुख पात्र है। यह दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
“कहां नारी ने ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम।
जानती है वह केवल पुरुष भुजाओं में करना विश्राम।”
विश्व की बात द्रोपदी छोड़,
शक्ति इन हाथों की ही तोल।
खींचता हूं मैं तेरा वस्त्र,
पीठ मत न्याय धर्म का ढोल।
अतः दुशासन के चरित्र की दुर्बलता का उद्घाटन करते हुए डॉ ओंकार प्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं लोकतंत्र या चेतना के इस युग में अभी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दुशासन हैं जो दूसरों के बढ़ते मान सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और संपत्ति को हड़पने के लिए प्रत्यक्षण घात लगाए हुए बैठे रहते हैं। इस काव्य में दुशासन उन्हीं का प्रतीक है। इस खंडकाव्य में दुशाशन को एक नायक के रूप में भी देखा गया है।
सत्य की जीत खंडकाव्य के नायक के रूप में युधिष्ठिर के चरित्र को स्थापित किया गया है। द्रोपदी एवं धृतराष्ट्र के कथनों के माध्यम से युधिष्ठिर का चरित्र उजागर हुआ है। सत्य की जीत खंडकाव्य में युधिष्ठिर का चरित्र महान गुणों से परिपूर्ण है। उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित रुप में प्रस्तुत की गई हैं।
“तुम्हारे साथ विश्व है, क्योंकि तुम्हारा ध्येय विश्व कल्याण।”
अर्थात धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर के साथ संपूर्ण विश्व को माना है, क्योंकि उनका उद्देश्य विश्वकल्याण मात्र है।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि सत्य की जीत खंडकाव्य में युधिष्ठिर खंड काव्य के प्रमुख पात्र नायक है जिनमें विश्वकल्याण सत्य धर्म धीर शांत व सरल हृदई व्यक्तित्व का समावेश है।
सत्य की जीत खंडकाव्य परीक्षा के माध्यम से एक बहुत ही महत्वपूर्ण खंडकाव्य है कियोंकि सत्य की जीत खंडकाव्य कई बार काफी परीक्षाओँ में पूछा जा चुका है। आपको हमारा यह आर्टिकल केसा लगा ? आप हमे कमेंट करके बता सकते है अगर आपको लगता है कि हमें और जानकारी इस आर्टिकल में प्रस्तुत करना चाहिए या हमारे द्वारा उपलब्ध कराइ गयी जानकारी इस विषय के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
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डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक महाभारत कालीन प्रसिद्ध पात्र करण के जीवन की घटनाओं पर आधारित है। सूत पुत्र नाटक में पौराणिक कथा को आधार बनाकर वर्तमान भारतीय समाज की जाति वर्ण वर्ग एवं नारी समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया गया है।
सूत पुत्र नाटक में महाभारत के मनस्वी संघर्षशील एवं कर्मठ व्यक्तित्व के स्वामी करण के प्रति पाठकों एवं दर्शकों की सहानुभूति उत्पन्न करने के अतिरिक्त नाटककार ने उन सामाजिक समस्याओं की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है जो आधुनिक समाज में भी व्याप्त हैं। नाटककार ने प्रस्तुत रचना में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुंदर समायोजन किया है।
सूत पुत्र नाटक में नाटककार का उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से भारतीय समाज की विसंगतियों की ओर समाज व पाठक का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है नाटककार ने सभी अंकों को एक सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास किया है। सूत पुत्र नाटक में नारी शिक्षा की समस्या नारी की समाज में विवशता एवं मजबूरियां आदि का चित्रण करके नाटककार ने इसे आज के परिपेक्ष में प्रसांगिक बनाया है।
डॉक्टर गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक के प्रथम अंक का प्रारंभ महर्षि परशुराम के आश्रम के दृश्य से होता है। धनुर्विद्या के आचार्य एवं श्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम उत्तराखंड में पर्वतों के बीच तपस्या लीन है। परशुराम ने व्रत ले रखा है कि वह केवल ब्राह्मणों को ही धनुर्विद्या सिखाएंगे। सूत पुत्र कर्ण की हार्दिक इच्छा है कि वह एक कुशल लक्ष्य भेदी धनुर्धारी बने। इसी उद्देश्य से वह परशुराम जी के आश्रम में पहुंचता है और स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने लगता है।
सूत पुत्र नाटक का सारांश की शुरुआत में नाटक के प्रथम अंक में इसी दौरान एक दिन करण की जंघा पर सिर रखकर परशुराम सोए होते हैं तभी एक कीड़ा कार्ड की जगह को काटने लगता है जिससे रक्त स्राव होता है। करण उस दर्द को सेंड करता है क्योंकि वह अपने गुरु परशुराम की नींद तोड़ना नहीं चाहता। रक्त स्राव होने से परशुराम की नींद टूट जाती है। अतः सूत पुत्र नाटक में करण की सहनशीलता को देखकर उन्हें उसके क्षत्रिय होने पर संदेह होता है।
उनके पूछने पर कर उन्हें सत्य बता देता है। परशुराम अत्यंत क्रोधित होकर कर्ण को श्राप देते हैं कि मेरे द्वारा सिखाई गई विद्या को तुम अंतिम समय में भूल जाओगे और इसका प्रयोग नहीं कर पाओगे। करण वहां से वापस चला आता है।
सूत पुत्र नाटक का द्वितीय अंक द्रौपदी के स्वयंवर से आरंभ होता है। राजकुमार और दर्शक एक सुंदर मंडप के नीचे अपने अपने आसन पर विराजमान हैं। खोलते तेल के कड़ाहे के ऊपर एक खंभे पर लगातार घूमने वाले चक्र पर एक मछली है। स्वयंवर में विजई बनाने के लिए तेल में देखकर उस मछली की आंख को भेजना है।
अनेक राजकुमार लक्ष्य भेजने की कोशिश करते हैं और असफल होकर बैठ जाते हैं। प्रतियोगिता में कर्ण के भाग लेने पर राजा द्रुपद आपत्ति करते हैं और उसे अयोग्य घोषित कर देते हैं।
सूत पुत्र नाटक के द्वितीय अंक में दुर्योधन उसी समय करण को अंग देश का राजा घोषित करता है। इसके बावजूद करण का क्षत्रियता एवं उसकी पात्रता सिद्ध नहीं हो पाती है और कर्ण निराश होकर बैठ जाता है। उसी समय ब्राह्मण वेश में अर्जुन एवं भीम सभा मंडप में प्रवेश करते हैं। लक्ष्य भेद की अनुमति मिलने पर अर्जुन मछली की आंख भेज देते हैं तथा राजकुमारी द्रोपदी उन्हें वरमाला पहना देती है।
अर्जुन द्रौपदी को लेकर चले जाते हैं। सुने सभा मंडप में दुर्योधन एवं कर्ण रह जाते हैं। दुर्योधन कर्ण से द्रोपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कहता है जैसे करण नकार देता है। दुर्योधन ब्राह्मण वेश धारी अर्जुन एवं भीम से संघर्ष करता है और उसे पता चल जाता है कि पांडवों को रक्षा गृह में जलाकर मारने की उसकी योजना असफल हो गई है। कर्ण पांडवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है। यहीं पर द्वितीय अंक समाप्त हो जाता है।
सूत पुत्र नाटक के तृतीय अंक की शुरुआत में अर्जुन एवं करण दोनों देवपुत्र हैं। दोनों के पिता क्रमशः इंद्र एवं सूर्य को युद्ध के समय अपने अपने पुत्रों के जीवन की रक्षा की चिंता हुई। इसी पर केंद्रित तीसरे अंक की कथा है। यह अंक नदी के तट पर करण की सूर्य उपासना से प्रारंभ होता है। करण द्वारा सूर्य देव को पुष्पांजलि अर्पित करते समय सूर्य देव उसकी सुरक्षा के लिए उसे स्वर्ण के दिव्य कवच एवं कुंडल प्रदान करते हैं। वह इंद्र की भाभी चांद से भी उसे सतर्क करते हैं तथा करण को उसके पूर्व वृतांत से परिचित कराते हैं। इसके बावजूद वे कार्ड को उसकी माता का नाम नहीं बताते।
कुछ समय पश्चात इंद्र अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा हेतु ब्राह्मण का वेश धारण कर करण से उसका कवच कुंडल मांग लेते हैं। इसके बदले इंद्रकरण को एक अमोघ शक्ति वाला अस्त्र प्रदान करते हैं जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इंद्र के चले जाने के बाद गंगा तट पर कुंती आती है। वह कर्ण को बताती है कि वही उसका जेष्ठ पुत्र है।
सूत पुत्र नाटक के तृतीय अंक के अंत में वह कुंती को आश्वासन देता है कि वह अर्जुन के सिवा किसी अन्य पांडव को नहीं मारेगा। दुर्योधन का पक्ष छोड़ने संबंधी कुंती के अनुरोध को करण अस्वीकार कर देता है। कुंती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है और इसी के साथ नाटक के तृतीय अंक का समापन हो जाता है
डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक के चौथे एवं अंतिम अंक की कथा का प्रारंभ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि से होता है। सर्वाधिक रोचक एवं प्रेरणादायक इस अंक में नाटक के नायक करण की जान वीरता वीरता पराक्रम दृढ़ प्रतिज्ञा संकल्प जैसे गुणों का उद्घाटन होता है। अंक के प्रारंभ में एक और श्री कृष्ण एवं अर्जुन तो दूसरी और करण एवं शल्य है।
संध्या एवं करण में वाद विवाद होता है और शल्य करण को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित करता है। करण एवं अर्जुन के बीच युद्ध शुरू होता है। अतः कार्ड अपने बाणों से अर्जुन के रथ को पीछे धकेल देता है। श्री कृष्ण कर्ण की वीरता एवं योग्यता की प्रशंसा करते हैं जो अर्जुन को अच्छा नहीं लगता।
कड के रथ का पहिया दलदल में फंस जाता है। वह जब पैसा निकालने की कोशिश करता है तो श्री कृष्ण के संकेत पर अर्जुन ने हत्याकांड पर बाढ़ वर्षा प्रारंभ कर देते हैं जिससे करण मृमांतक रूप से घायल हो जाता है। और गिर पड़ता है। संध्या हो जाने पर युद्ध बंद हो जाता है।
सूत पुत्र नाटक के चतुर्थ अंक के अंत में श्री कृष्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए युद्ध भूमि में पड़े करण से सोना मांगते हैं करण अपना सोने का दांत तोड़ कर और उसे जल्द से शुद्ध कर ब्राह्मण वेशधारी श्री कृष्ण को देता है।
सूत पुत्र नाटक के नाटककार का उद्देश्य महाभारत कालीन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत कर के वर्तमान समय में भारतीय समाज की विसंगति की ओर पाठकों एवं दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना है। नाटककार ने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर नाटक में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुंदर समायोजन किया है जिसे निम्न बिंदुओं से निरूपित किया जा सकता है–
करता है।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत पुत्र नाटक के माध्यम से नाटककार ने समाज की कुरीतियों को अपने नाटक द्वारा रेखांकित किया है उन पर प्रतिघात किया है।
गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक के नायक कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं मौजूद है–
अंततः कहा जा सकता है कि करण का व्यक्तित्व अनेक श्रेष्ठ मानवीय भावों से परिपूर्ण है।
डॉक्टर गंगा सहाय प्रेमी द्वारा लिखित सूत पुत्र नाटक कर्ण के बाद सबसे प्रभावशाली एवं केंद्रीय चरित्र श्री कृष्ण का है।
जिन के व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–
डॉ गंगा साहेब प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक की प्रमुख नारी पात्र कुंती है उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
इस प्रकार नाटककार ने कुंती का चरित्र चित्रण अत्यंत कुशलता से किया है उन्होंने थोड़े ही विवरण में कुंती के चरित्र को कुशलता से दर्शाया है।
डॉ गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित सूत पुत्र नाटक में परशुराम को ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के मिले-जुले रूप वाले महान तेजस्वी और योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। परशुराम कर्ण के गुरु हैं। वह धनुर्विद्या के अद्वितीय ज्ञाता हैं। उन की चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं–
इस प्रकार परशुराम तेजस्वी ब्राह्मण होने के साथ-साथ आदर्श शिक्षक भी है उदार हृदय वाले भी हैं। वे बाल ब्रह्मचारी हैं तथा निस्वार्थ भाव से शिक्षा का दान करने वाले हैं। ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के सभी गुण उनमें विद्यमान हैं।
इस प्रकार से सूत पुत्र नाटक की कहानी समाप्त हो जाती है।
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